SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थानकवासी संप्रदाय का जीवनानुभव थे। वह सम्प्रदाय-धर्मदासजी का सम्प्रदाय-इस नाम से स्थानकवासो सम्प्रदाय के अन्यान्य सम्प्रदायों में प्रसिद्ध, था । उन वृद्ध साधु का नाम तो मैं भूल गया है, पर उनके मुख्य शिष्य श्री नन्दलाल जो नामक थे। जो उस सम्प्रदाय में अच्छे प्रतिष्ठित साधु समझे जाते थे। ये नन्दलाल जी महाराज तपस्वी जी केसरीमलजो की अपेक्षा कुछ अधिक ज्ञानवान थे। इनके पास भी प्रायः मेरी उम्र वाला एक नव दीक्षित बाल शिष्य था और संयोग से उसका नाम भी किशनलाल था वह एक ब्राह्मण का हो लड़का था और कुछ बुद्धि से भी चंचल था। मेरे से पहने शायद एक डेढ़ वर्ष पहले उसने दीक्षा ली थी। इस प्रकार रतलाम के उस धर्म स्थानक में धर्मदासजो सम्प्रदाय के हम ८, १० साधु इकट्ठे हो गये थे। . रतलाम में जाने पर मुझे यह ज्ञान हा कि स्थान : वासो सम्प्रदाय में छादे बड़े साधुनों के. अनेक सम्प्रदाय हैं । रतलाम में धर्मदासजी के सम्प्रदाय का मानने वाले भाइयों का अपेक्षा एक अन्य साधु महाराज को मानने वाले जैन भाइयों को संख्या कुछ अधिक थो । इन साधु महाराज का नाम पूज्य श्री लालजो था। मालवे के और मेवाड़ के अनेक गांव में इनके काफी भक्त लोग थे। इनके समूदाय के साधु लोग उन पुराने धर्म स्थानकों में नहीं ठहरते थे । उनका मन्तव्य था कि वे धर्म स्थानक पुराने जमाने में श्रावकों ने साधु संतों के ठहरने के लिये बनाये हैं- इसलिये ये स्थानक सावध कर्म के पोषक हैं । अतः इन धर्म-स्थानों में उतरने से साधुओं को सावध कर्म का पाप लगता है । इत्यादि कुछ बातें पहली ही बार मेरे सुनने में पाई। कहते हैं उस सम्प्रदाय वाले श्रावकों ने अपने धर्म ध्यान आदि करने के लिये जो- नये मकान बनाये उनका नाम उन्होंने पौषध शाला ऐसा रखा । जहाँ कहीं ऐसा पौषध शालाएँ थी उनमें उक्त पूज्य श्री लाल जी के अनुयायी साधु सत ठर सकते थे । स्थानक के नाम से प्रसिद्ध पुराने स्थानों में वे नहीं ठहरते थे । ___ रतलाम में हम लोग कुछ थोड़े ही दिन ठहरे और वहां से फिर बड़नगर प्रादि गांवों में विचरते रहे। मैं धीरे धीरे अपना दशवकालिक सूत्र का अध्ययन करता रहा और साथ में कुछ थोकड़े भी कंठस्थ करता रहा । यों गर्मी के चार महिने व्यतीत हुए और प्राषाढ़ महिने में हम वापिस पार पहुँचे । चौमासा धार में करना निश्चित होगया था। इसलिये हम धार में पाकर चतुर्मास के निमित उसी स्थानक में ठहर गये । मेरा दशवकालिक सूत्र का अध्ययन पूरा हो गया था। अर्थात् वह पूरा सूत्र मैंने कंठस्थ कर लिया था और पढ़ा हुआ सूत्र विस्मृत न हो जाय इसके लिये उसकी प्रवृत्ति हमेशा की जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy