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________________ स्थानकवासी संप्रदाय का जीवनानुभव (७) चूकि इस सूत्र की भाषा प्राकृत है और नव दीक्षित को उस भाषा का कोई परिचय नहीं होता । इसलिये मूल सूत्र के पढ़ जाने से तो सूत्रगत बातों का ज्ञान नहीं होता । इस सूत्र का ठीक ठीक रहस्य जानने के लिये तो प्राकृत भाषण के विशेष ज्ञान की प्राश्कता होतो है, परन्तु सूत्र पाठ सो कंठस्थ कर लेने के बाद उसका अर्थ समझना आवश्यक होता है । और वह अर्थ उस जमाने की प्रचलित लोकभाषा में लिखा रहता है इसलिये इस लोकभाषा द्वारा सूत्र का अर्थ समझने का नूतन दीक्षित जैन साधु प्रयत्न करते रहते हैं । यों पीछे से मुझे कुछ अध्ययन करने के बाद मालूम हुआ कि-इस सूत्र पर तो श्री हरिभद्र. सूरि जैसे महान शास्त्रकारों ने संस्कृत भाषा में बड़ी बड़ी टीकाएँ लिखी हैं । पर वह तो मुझे बहुत वर्षों बाद ज्ञान हा उनको इन बातों का कोई ज्ञान नहीं था । वे मुझे सूत्र का अर्थ समझाने के लिये पुर/नो लोकभाषा में लिखे हुए अर्थो का धीरे धीरे मनन करते रहना चाहिये-ऐसा कहा करते यह तो मुझे याद नहीं है कि उन तपस्वी जी को इस सूत्र का ठीक२ अर्थ ज्ञात था या नहीं। मुझसे पहले जो मेरे जितनी हो आयुष्य वाले एक बालक ने दीक्षा लेली यी, वह उस समय उस सूत्र का कुछ प्रागे का पाठ बैठा बैठा कठस्थ किया करता था। उस समय तक इस सत्र के प्रथम चार अध्याय उसने कंठस्थ कर लिये थे। उसके साथ साथ जैन स्थानकवासो साधु सम्प्रदाय में जो पठन पाठन का क्रम है-तद्नुसार जिनको थोकड़ा शब्द से पहचाने जाते हैं वैसे पुरानी लोक भाषा में ग्रथित छोटे बड़े अनेक संग्रह किये हुए हैं उनका भी साथ साथ अध्ययन किया जाता है । इन थोकड़ा शब्द से परिचित प्रकरणों में जैन-ग्रागमों में वर्णित विचारों, प्राचारों और तत्वों का सार संकलित करने , का प्रयत्न किया गया है। मूर्ति पूजक सम्प्रदाय में उन थोकड़ों के पढ़ने का प्रचार नहीं है । इस सम्प्रदाय वाले थाकडों जैसे ही जैन-शास्त्रों के सार समझाने वाले प्राकृत भाषा में छोटे छोटे स्वतन्त्र प्रकरण - ग्रन्थ मिलते हैं-जिनमें जैन धर्म के जीव अजीव आदि सभी तत्वों के सार संकलित हैं-उन्हीं का मूर्ति पूजक सम्प्रदाय में दीक्षित व्यक्ति का अध्ययन कराया जाता है । 'जीव-विचार. नवतत्व प्रकरण, दंडक प्रकरण आदि ऐसे कई प्रकरण-ग्रन्थ हैं जो कम से पढ़े पढ़ाये जाते हैं । स्थानकवासी सम्प्रदाय में यह प्रकरण-ग्रन्य मान्य नहीं हैं, क्योंकि इनके वनाने वाले प्राचार्य बहुत पाछे के समय में हुए हैं । अतः वे प्रमाण-भूत ग्रन्थ नहीं माने जाते। इसीलिये स्थानकवासी सम्प्रदाय में दशवकालिक उत्तराध्ययन, प्राचारांग सूत्र आदि मूल पागमां के पठन-पाठन की प्रथा रही है। . जिस समय मैं दीक्षित हुआ उस समय स्थानकवासी सम्प्रदाय में संस्कृत भाषा के अध्ययन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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