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स्थानकवासी संप्रदाय का जीवनानुभव
एक चद्दर और चोल पट्टा पहन कर जमीन पर कुछ गरम ऊन का कंबल सा पिछौना बिछा कर बैठा हमा अपने आपको देख रहा है। मुह पर एक पट्टी बांधली है- जो जीवन में पहले कभी नहीं बांधी थो । यह जरूर अटपटी सी लग रही है। जो चद्दर मुझे प्रौढने के लिये दो गई वह किसी खास किस्म के लठ्ठ की थी और उस पर हींगलू आदि कई प्रकार के रंगों से स्वस्तिक अादि चित्रावली की गई थी। स्थानकवासी सम्प्रदाय के शायद उस प्रदेश के भाइयों में यह प्रथा थी कि नव दीक्षित हाने वाले भाई को जो पहली चद्दर प्रौढ़ाई जाय, वह इस प्रकार के चित्र विचित्र रगों से मंडित हो । अन्य प्रदेश के साधुओं के लिये यह प्रथा थी या नहीं इसका मुझे कोई ज्ञान नहीं है । मैं जरूर कई महीनों तक उसी चद्दर को मौड़ कर स्थानक से बाहर जाता रहा, यहाँ तक कि जब तक वह जीर्ण होकर फट नहीं गई ।
- हाँ, तो मैं उस रात उसी चद्दर को प्रौढ़ कर तीन चार घण्टे सोया रहा-पास में तपस्वीजो भी सोये थे । श्याम को उन्होंने प्रतिक्रमण का पाठ सुनाया और कुछ पलथी मार कर बैठे हुए कायोत्सर्ग करना भी सिखाया । फिर नमो अरिहंताणम् की एकाध माला जप कर सो जाने का आदेश दिया । मैं सो गया, परन्तु अपने स्वाभाविक चंचल मन के कारण पूर्व की कुछ घटनाओं का स्मरण होने लगा। फिर वही बात,याज दिन में कितने ठाठ बाट के साथ हाथी पर बैठ कर यह नूतन साधु वेश धारण करने के लिये दिग्ठाण गांव से जुलूस के रूप में हजारों भाई बहिनों के साथ बेंडबाजों की धुन सुनता हुआ-मानों किसी राजकुमार का राज तिलक होने जा रहा है ऐसा नाटकीय दृश्य का अनुभव करता हुआ बगीचे में उतरा और घण्टे भर में वह सब नाटकीय वेश और नाटकीय ठाट बाट अदृश्य हो गया और मैं इस प्रकार इस चादनी को शुत्र पुलकित रात्रि में एक आम्र वृक्ष के नीचे मामूला सा बिछौना विछा कर निद्रा लेो का व्यर्थ प्रयास कर रहा हूँ। भण भर में रूपाहेली और माता राजकुमारी का स्मरण हो पाया। गुरूदेवी हपनो का भी स्मरण हो पाया । बाद में सुखानंदजी में भैरवी दीक्षा देने वाले खावी बाबा शिवा नदजी का भी स्मरण हो पाया किस तरह उज्जैन की उस शिप्रा नदी के तट वाले उन मठ में से जान बचाने के लिये वह चिमटा, वह कमण्डल फेंक कर गुप चुप एक कुर्ता पहन कर निकल भागा । फिर घूमता फिरता कैसे बदनावर पहुँचा और वहा से उस महाजन दम्पति के ससर्ग से दिग्ठाग तपस्वी जी महाराज के दर्शन करने चला पाया और कुछ ही दिनों में वह सारा नाट समाप्त कर प्राज इस रात में बैठा हुआ अपने भविष्य के किसी अज्ञात मार्ग में चलने को निकल पड़ा ।
दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही शौचादि क्रिया से निवृत्त होकर हम ,दिग्ठाण गांव वाले स्थान में जाकर स्थिर होकर रहने लगे । साधु जीवन की चर्या का आज से प्रारम्भ हुमा ।
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