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गुरू के सर्व प्रथम दर्शन .
[५७ और गालों पर हाथ फेरा और बोले- 'बेटा, ठाकुर सा. की खूब सेवा करते रहना।'
उस दिन का यह स्मरण मेरे मन पर आज भी इसी तरह अंकित
फिर शायद दो तीन दिन के बाद ही पिताजी की मृत्यु हो गई। उनकी अन्त्येष्टि क्रिया के लिये गांव के मुख्य मुख्य जन सम्मिलित हुए
और उनकी अर्थी को उठा कर गांव के पूर्व में जो मानसी नदी है उसके बीच में ले जाकर पिताजी के शरीर का अग्निदाह किया गया । अग्निदाह के लिये मेवाड़ की प्रथा के अनुसार मिट्टी की हडिया में घर से जो अग्नि ले जाई जाती है, उस हँडिया को उठाकर मैं अरथी के आगे आगे चला था, जिसका भी स्पष्ट स्मरण मुझे अच्छी तरह बना हुआ है।
पिताजी की मृत्यु तिथि मुझे ठीक याद नहीं है, परन्तु इतना स्पष्ट स्मरण है कि उन दिनों गांव के ठाकुर के ज्येष्ठ पुत्र स्व० श्री लक्ष्मण सिंह जी का विवाह उत्सव चल रहा था। बड़ी चहल पहल मची थी, ऐसी चहल पहल मैंने अपने गांव में पहले नहीं देखी थी। विवाहोपलक्ष में गढ़ में होने वाले एक दो भोजन समारंभो में भी मुझे जाना पड़ा था, जिसकी मुझे अच्छी तरह याद है । उन्हीं दिनों पिताजी की मृत्यु हुई थी। रूपाहेली के ठाकुर सा० श्री चतुरसिंह जी ने अपने जीवन वृत सम्बंधी जो इतिहास की पुस्तक लिखी है, तद्नुसार उक्त विवाह उत्सव का समय विक्रम सम्वत् १६५५ का माघ शुक्ल पक्ष लिखा है। अतः पिताजी की मृत्यु भी उसी समय हुई ऐसा निश्चित होता है ।
पिताजी की मृत्यु के बाद जो द्वादशा आदि कार्य किये गये उनका कुछ कुछ आभास मुझे है। शोक के कुछ महिने व्यतीत होने के बाद गुरू महाराज एक दिन मेरी माँ को सान्त्वना देने के लिये हमारे घर पधारे। मीठे शब्दों में माताजी को कुछ आशीर्वादात्मक आश्वासन देकर बोले-"रिणमल को मेरे पास भेजते रहो। मैं इसको पढ़ाना
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