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जिनविजय जीवन-कथा
चाहता हूँ। तुम्हारा बेटा बहुत बुद्धिमान होगा और तुम्हारे घर की प्रतिष्ठा बढ़ाएगा।"
माँ के कहने से मैं फिर नियमित रूप से गुरू महाराज के पास जाने लगा । एक दिन शुभ मुहूर्त में मुझे स्लेट पाटी पर वर्णमाला सिखाना प्रारम्भ किया। बाद में गुरू महाराज ने जैन धर्म का सर्वादि मंगल पाठ रूप नमो अरिहंताणम् आदि कंठस्थ कराया। बाद में शुद्ध शब्दोच्चारण की दृष्टि से कातंत्र व्याकरण के कुछ प्रारम्भिक सूत्रों को भी कंठस्थ कराया। साथ में शुद्ध शब्दोच्चारण की शिक्षा भी देते रहे। उपसग्ग हरम् आदि प्राकृत भाषा के कुछ सूत्र भी सिखाते । उपाश्रय के पास ही एक चारभुजा जी का वैष्णव मंदिर था। उसका पुजारी महाजनों आदि के बच्चों को पट्टी पहाड़े आदि सिखाया करता । मैं भी दुपहर के समय अन्य बालकों के साथ पट्टी पहाड़े भी सीखता रहता था । रात में अपने घर माँ के पास रहता और दिन में विशेष समय गुरू महाराज के पास रहता था ।
कोई छह महिने बाद मेरी माता को ले जाने के लिये काका बाबा के कोई भाई आये थे। जिनका मुझे पूरा परिचय याद नहीं है। माँ के कहने से मुझे इतना अवश्य ज्ञात है कि वह अपने पिता की इकलौती बेटी थी। उसका कोई सगा भाई नहीं था । इसलिये मेरे नाना की मृत्यु के बाद उनकी जो जागीर थी वह उनके नजदीक के रिश्ते वाले भाइयों ने कब्जे में कर ली थी। वे रिश्तेदार भाई माता को अपने साथ गाँव ले जाने को आये थे और माता जी उनके साथ अपने पीहर के संबन्धियों के यहां जाकर कुछ महिने रही थी। मैं भी माँ के साथ ही था। वह गांव कौन सा था इसका मुझे ठीक स्मरण नहीं रहा। लेकिन वह प्राबू की पूर्व उपत्यका पिंडवाड़ा में ही कहीं था। मेरे नाना की जागीर भी उसी के समीप दस बीस माइल के अन्दर थी। माताजी जब अपने पीहर वाले संबन्धियों के यहाँ गई तो वह कभी अपने जन्म गांव में गई हो ऐसा मुझे स्मरण नहीं आता। हाँ, सारनेश्वर महादेव की यात्रा के लिये वह अपने चचेरे भाई आदि के साथ अवश्य गई थी। मैं भी उसके साथ था, जिसका मुझे स्पष्ट स्मरण है।
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