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जिनविजय जीवन-कथा
मोसम्मी का रस देना चाहते थे । परन्तु उस समय वह अजमेर के अलावा कहीं उपलब्ध नहीं थी । तब गुरु महाराज स्वयं अजमेर गये और वहाँ से एक टोकरी मोसम्मी की लाये। जिसका मुझे खूब अच्छी तरह स्मरण है । क्योंकि उस मोसम्मी की कुछ रसदार पेशियाँ सबसे पहले मुझे खाने के लिये दी थी। इस प्रकार गुरुजी ने जो बड़े प्रेम से मोसम्मी की पेशियाँ दी थी, उसके मीठे रस का जीवन में सर्वप्रथम अनुभव किया । मुझे स्मरण है कि मोसम्मी का रस मैंने अपने हाथ से निकाल कर पिताजी को पीने को दिया था । पिताजी का स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा था तब उनको यह श्राभास हो गया था कि मेरा जीवन अब थोड़े ही समय में समाप्त होने वाला है ।
एक दिन सवेरे गुरु महाराज पिताजी को देखने के लिये आये तो उनको भी यह आभास होगया कि अब इनका शरीर अधिक समय टिकने वाला नहीं है । तब भी एक उत्तम एवम् सहृदय वैद्य की तरह वे पिताजी को आश्वासन पूर्ण वचनों द्वारा प्रसन्न रहने का उपदेश दे रहे थे। मैं उनके पास ही बैठा था तब पिताजी ने हाथ जोड़ कर कहा'इस बालक को आपकी शरण में देता हूँ । इसको ऐसा आशीर्वाद प्रदान करें जिससे हमारे कुल का उद्धार हो ।"
गुरुजी ने शान्त स्वर में कहा- “तुम्हारा पुत्र नसीबदार हैं। वह तुम्हारे वंश और कुल का गौरव बढ़ाएगा ।"
यह सुनकर पिताजी के आँखों से आँसू गिरने लगे और वे गुरु महाराज को हाथ जोड़ कर बिछौने पर लेट गये । यह सब देख सुनकर माताजी भी बहुत खिन्न हुई और आँखों से आँसू पोंछने लगी । गुरु महाराज हमारे घर से उपाश्रय जाने के लिये विदा हुए तो माताजी उनके पैरों में पड़ी और मुझे कहा- बेटा रिणमल ! गुराँसा को पहुँचा आ ।"
मैं उनका हाथ पकड़ हुए उपाश्रय तक गया और पैरों में पड़ कर लौटने लगा तो गुरु महाराज ने बहुत ही स्नेह भाव से मेरे मस्तक पर
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