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________________ मेरे दादा और पिताजी के जीवन की घटनायें [३ धर्म की भावना को उत्तेजित करने का प्रचार करते रहते थे, मलेच्छ संस्कृति और मलेच्छ सत्ता के विरूद्ध वे अपनी प्रचंड उपदेशक शक्ति का प्रभाव फैलाते रहते थे, उनके उपदेशों से प्रभावित होकर कई राजपूत सरदार स्वामी जी के अनुरागी बन रहे थे । वे उदयपुर और जोधपुर जाते हुए एक दो बार रूपाहेली भी ठहरे थे, शायद उस समय पिताजी ने भी उनके दर्शन किये थे, और उन्होंने यज्ञोपवीत भी धारण किया था । पिताजी के ऐसे संस्कारों के कारण, पीछे जब ठाकुर चतुरसिंह जी अधिक समझदार होते गये तब उनका स्नेह संबन्ध पिताजी के साथ बढ़ता गया । पिताजी अंग्रेजी सत्ता के पुराने बागी थे इसलिये वे अपने आपको इस प्रकार प्रसिद्ध होने देना नहीं चाहते थे और दूसरे ठिकानेदार राजपूत भी उनको इस रूप में अपनाना नहीं चाहते थे, इसलिये रूपाहेली में उनकी प्रसिद्धि एक परदेशी राजपूत के रूप में रही । उक्त रूप में ठाकुर साहब चतुरसिंह जी ने मेरे पिताजी के विषय में जो बातें कही मैंने वे नोट करली | बाद में उन्होंने मेरी माता के पास जो परिजन के रूप में रहता था, उसको बुलाया । उसका नाम अजिताजी था, उसकी उम्र करीब ६०-६५ वर्ष की थी, उसने तो मुझे नहीं पहिचाना लेकिन मैंने उसे ठीक प्रकार से पहचान लिया, वह बेचारा भोला भाला सीधा मनुष्य था, ठाकुर साहब ने उसे मेरा कुछ परिचय दिया और कहा कि "तुम जिस ठुकरानी के साथ यहाँ आये थे उनका तुमको कुछ पता है ? वे अब कहाँ हैं ? रूपाहेली से वे कब और कहाँ गई ? तुम कितने वर्ष उनके पास रहे ? आदि बातें ये महाराज जानना चाहते हैं, जो कुछ बातें याद हैं, इनको बताओ । तुमको ठाकुर साहब को अपने नित्य नियम का समय हो गया था सो वे उस भाई को मेरे पास छोड़कर अपने दूसरे स्थान में चले गये । मैं फिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001967
Book TitleJinvijay Jivan Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherMahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada
Publication Year1971
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size11 MB
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