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जिनविजय जीवन-कथा
वहाँ से उठकर उस भाई को साथ लेकर अपने स्थान में चला आया।
वहां बैठकर मैंने अपनी माँ के विषय में उस अजिताजी से कुछ पूछा और उसका उसने जो कुछ हाल बताया उसका संक्षिप्त हाल इस प्रकार है।
मेरे रूपाहेली से चले जाने के बाद मेरी माता ने एक दो बार मुझे बुलाने के लिये उस औसवाल महाजन को बानेड़ भेजा था, जो यति जी महाराज के साथ उनको वहाँ छोड़ने गया था। उसके साथ मेरे रूपाहेली न आने पर, माँ को बड़ा रंज रहा, उसके बाद मेरे छोटे भाई बादल की मृत्यु हो गई, फिर माँ ने उस महाजन को फिर बानेण भेजा तो वह समाचार लाया कि मैं वहाँ नहीं हूँ और कहीं दूसरी जगह चला गया हूँ। फिर आठ दस महिने बाद उसको वहाँ और भेजा तो उसने आकर कहा कि, "रिणमल्ल तो किसी साधु जमात की सोबत में परदेश चला गया है, बानेण वालों को भी कुछ पता नहीं है।
ये समाचार सुनकर माताजी बहुत दिनों तक रोती रहीं । उनने खाना पीना भी एक तरह से छोड़ दिया, कोई भी उनसे मिलने आता तो वे कुछ भी नहीं बोलती थीं, उनके पास वाले एक घर में, इन्दा जी, जो आपके दादा के काका के बेटे भाई होते थे वे रहते थे, वे माता जी की सार संभाल रखा करते थे, दो तीन वर्ष बाद इन्दाजी उनको पुष्कर की यात्रा कराने ले गये, इसके दो तीन वर्ष बाद एकलसिंगा की ढाणी से उनके कोई रिश्तेदार आये और वे माता जी को वहाँ ले गये। ___इन्दाजी भी उन्हें छोड़ने साथ गये, अजिता ने कहा कि, एकलसिंगा की ढाणी के पास एक खेड़ा है जहाँ आपके पिता के नजदीक के कोई भाई बन्धु रहते थे वे ही उनको वहाँ ले गये, आपकी माताजी एक ही बार भोजन लेती थीं, और दिन रात भगवान के नाम माला फेरा करती थी; वे बहुत ही कम बोलती थी वे जब तक रूपाहेली रहीं मैं उनकी सेवा करता रहा, रूपाहेली से वे जब गई तब मुझे यहीं छोड़ गई,
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