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जिनविजय जीवन-कथा रूपाहेली के ठिकाने वालों के साथ थी, अतः पीछे जब मेरे पिता रूपाहेली आकर रहने लगे, तब ठिकाने वालों की आंतरिक सहानुभूति होने पर भी राजनैतिक परिस्थिति होने के कारण पिताजी वहाँ अज्ञात प्रवासी और परदेशी के रूप में ही पहचाने जाते थे परन्तु बाद में मेरी माता के साथ उनका वैवाहिक सम्बन्ध हुआ, और सिरोही राज्य के एक अच्छे अधिकारी के रूप में उनकी अच्छी स्थिति बनी तो, ठिकाने वाले भी उनसे अच्छा मेल जोल दिखाने लगे, शायद इसी संबन्ध के कारण पिताजी ने रूपाहेली में अपना निवास स्थान बनाना पसन्द किया और मेरी माता के वहां रहने का प्रबन्ध किया।
मेरे पिताजी ने जब रूपाहेली में अपना निवास स्थान बनाया तब ठाकुर चतुरसिंह जी की उम्र २०-२२ वर्ष की थी, पिताजी की भी उम्र २०-२२ वर्ष की थी।
ठाकुर चतुरसिंह जी को जवानी में सुअर की शिकार का बड़ा शौक था, पिताजी भी खूब अच्छे शिकारी थे, इसलिये उनका परिचय ठाकुर चतुर सिंह जी से विशेष रूप से हो गया था, पर पिताजी अधिक तर अपनी सिरोही राज्य की नौकरी में रहा करते थे, जब कभी वे रूपाहेली आते तो कभी २ ठाकुर साहब के साथ शिकार खेलने चले जाते थे, पीछे ठाकुर चतुरसिंह जी अधिक बीमार रहने लगे, तब फ़िर उन्होंने वह आखेट का व्यसन छोड़ दिया।
पिताजी बीच २ में अजमेर, पुष्कर आदि स्थानों में जाया करते थे, उनके पिताजी पुष्कर में ही, सन्यासी के रूप में मृत्यु प्राप्त हो गये थे, अतः उनके मन में कुछ धार्मिक भाव भी उमड़ने लगे थे, उस संकट काल में जब साधु का भेष धारण कर पाबू, गिरनार आदि तीर्थ स्थानों में वे घूमते रहे, और साधु सन्तों की सोबत करते रहे, तब जो कुछ धार्मिक संस्कार बन पाये थे, उनका अब पुनः जागरण होने लगा था।.
उन दिनों आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द जी राजस्थान के राज्यों में घूमा करते थे, और राजपूत राजाओं व सरदारों में क्षात्र
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