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जिनविजय जीवन-कथा
बातें कर रहे थे और इधर स्वयं ठाकुर साहब इनके पैरों में अपना मस्तिष्क रख कर इनके हाथ अपने मस्तक पर रख रहे हैं। ___ कुछ क्षण बाद ठाकुर साहब स्वस्थ हुए और प्रसन्न मुद्रा में पूछने लगे कि आज अचानक इस तरह आपका यहाँ पधारना कैसे हआ और क्या बात है ? इत्यादि । मैंने कहा, ठाकुर साहब आप स्वस्थ हो जाइये मैं सब बातें आपसे कहूँगा । नहीं मालूम विधि के किस अज्ञात संदेश ने मुझे २-३ दिन पहले ऐसी उत्कंठा, मानसिक प्रेरणा की कि मैं अपनी जन्मभूमि रूपाहेली के दर्शन करूँ, और आपसे भेंट करूँ।
मुझे अपने बचपन का वह दिन अच्छी तरह याद है जिस दिन मेरे पिता की बीमारी का हाल सुनकर आप हमारे घर पर पधारे थे
और फिर आपने यतिवर श्री देवीहंस जी को उनका इलाज करने की प्रार्थना की थी, जिस तरह आपका स्नेह मेरे पिता जी पर था उसी तरह आपकी भक्ति उन यतिवर देवीहंस जी पर थी, जिनको मैं अपना जीवन मार्ग-दर्शक गुरु मानता हूँ। विधि के किसी ऐसे ही क्रूर विधान के कारण मैं अपनी जन्मभूमि का इतने वर्षों तक दर्शन ही नहीं कर पाया, और न पिता के समान आपसे ही कोई सम्पर्क कर पाया, संवत् १६५७ की निर्जला एकादशी के दिन मैं अपनी जन्म-भूमि से बिछड़ा उसके २०-२१ वर्ष बाद आज इस प्रदेश और इस जन्म-भूमि में आ पाया हूँ ! इत्यादि ।
ठाकुर साहब ने फिर कुंवर साहब तथा अन्यान्य जनों को बुलाया, संक्षेप में मेरा परिचय दिया, सुनकर कुंवर साहब तो बहुत लज्जित हुए और वे भी उसी तरह हाथ जोड़ कर माफी आदि मांगने लगे ।
ठाकुर साहब ने पूछा कि आपका सामान वगैरह कहाँ है ? मैंने कहा मैं सीधा स्टेशन से गाँव आया तब चारभुजा जी के मन्दिर के चौंतरे पर जाकर बैठा और वहीं अपना छोटा-सा थैला रख कर आया हूँ। मेरी इच्छा है कि यदि यति जी महाराज का वह उपाश्रय खाली
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