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मेरे दादा और पिताजी के जीवन की घटनायें
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और वे इस विषय की अच्छी-अच्छी पुस्तकें मँगाते और पढ़ते रहते थे । अजमेर वाले म० म० गौरीशंकर जी हीराचन्द जी ओझा से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध था । स्वभाव से भी सज्जन और सदाचार वृत्तिवाले थे । मेवाड़ राज्य के तत्कालीन जागीरदारों में वे प्रथम मैट्रिक की परीक्षा पास करने वाले अजमेर मेयो कॉलेज के प्रशस्ति प्राप्त विद्यार्थी थे । मेरे इस मिलने से पूर्व ही वे मेरे नाम तथा साहित्यिक कृत्तियों आदि से यथेष्ट परिचित थे परन्तु कभी साक्षात्कार करने का अवसर न मिलने से मेरी आकृति और परिस्थिति का उन्हें कोई आभास नहीं था ।
मेरे दरी पर बैठ जाने पर विनम्र भरे स्वर से पूछा कि आप कहाँ से पधार रहे हैं ? आपका निवास स्थान कहाँ है ? मैंने उनसे वही सब बातें कहीं जो कुँवर साहब को सुनाई थी और नाम का तथा स्थान का भी परिचय दिया । सुनकर वे क्षण भर तो स्तब्ध से हो गये और बोले कि क्या आप वे ही मुनि जिनविजय जी हैं जो - अहमदाबाद के गुजरात पुरातत्व मंदिर के आचार्य सुने जाते हैं ? " मैने धीमे से कहा, हाँ ठाकुर साहब, मैं वही मुनि जिनविजय हूँ और आपकी इसी रूपाली में जन्मा हूँ । मैं आपका प्रजा जन हूँ । सुनकर ठाकुर साहब एक दम गद्दी पर से उठ खड़े हुए। उनका स्वर भर गया । आँखों में कुछ आँसू से झलकने लगे और दोनों हाथ जोड़कर, मेरे पैरों में मस्तक रख कर गद्गद् स्वर से बोले कि मुनि महाराज, इस तुच्छ मनुष्य पर आपने आज यह कैसी अकल्पित और असंभावित कृपा की और आप बिना किसी सूचना संकेत दिये एक अज्ञात और अपरिचित संत के समान यहाँ पधार कर मुझे कृतार्थ करने की करुणा की, इत्यादि अनेक प्रकार के उद्गार उनके मुख से निकले और हर्षाश्रुओं से उनका मुख आर्द्र हो गया । मुझे उठाकर उस गद्दी पर जिस पर वे स्वयं बैठे थे बलात् बिठाया । यह दृश्य वह नौकर एक किनारे खड़ा २ चकित-सा हुआ देख रहा था । उसकी समझ में नहीं आया कि यह क्या मामला है ? उधर तो कुँवर साहब इनसे कैसी कड़ी २
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