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________________ २४] जिनविजय जीवन-कथा __ दैववशात् मैं संवत् १९५७ में यतिजी महाराज की सेवा निमित्त माता की वेदना भरी अनुमति प्राप्त कर, रूपाहेली से बानेण चला गया । वहाँ पर यतिजी महाराज का स्वर्गवास हो गया और मैं अनाथ दशा के महारण्य में भटकने निकल पड़ा। उसके बाद माता की क्या दशा हुई, वह कहाँ रही, और कितने वर्ष जीती रही इसका मुझे कोई २० वर्ष तक किञ्चित् भी ज्ञान नहीं हुआ। --, इन २०-२१ वर्षों में मेरा जीवन किस तरह व्यतीत हुआ, इसका यथेष्ट परिचय आगे वाले प्रकरणों में यथा स्थान दिया जायगा । . सन् १९२१ में कैसे अकस्मत् मेरे मन में माता की स्मृति प्रबल रूप से जाग उठी, और उसके कारण मैं उसकी सुधबुध लेने कैसे रूपहेली जा पहुंचा और वहाँ पर मुझे क्या ज्ञान हुआ इसका परिचय इन आगे के पृष्ठों में दिया जा रहा हैं। बीस इक्कीस वर्ष बाद जन्मभूमि रूपाहेली जाने और माता-पिता के विषय में जीवनवृत प्राप्त करने का प्रयास । ____ आगे के प्रकरण में मैंने अपने जीवन के नये मार्ग का जो वर्णन लिखा है तदनुसार, सन् १९२० में मैं महात्मा गांधीजी के प्रत्यक्ष संपर्क में आया और उनके द्वारा भारत की परतन्त्रता को नष्ट करने के लिए चलाये गये असहयोग आन्दोलन का एक राष्ट्रीय सैनिक बनने के लिए जैन साधु सम्प्रदाय का विशिष्ट नेतृत्व पद छोड़कर तथा बहुजन वन्दनीय "गुरु पद" का त्याग कर महात्माजी द्वारा, प्रस्थापित सर्वप्रथम राष्ट्रीय विद्यापीठ (गुजरात विद्यापीठ) में एक प्रधानाचार्य के रूप में सम्मिलित हुआ। __सन् १९८० से लेकर सन् १६२० तक २० वर्ष पर्यन्त मैंने जिस प्रकार का जीवन स्वीकृत किया था उसका मैंने परित्याग किया, और मैं नूतन जीवन मार्ग का अनुसरण करने लगा, उसके कुछ ही समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001967
Book TitleJinvijay Jivan Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherMahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada
Publication Year1971
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size11 MB
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