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________________ मेरे दादा और पिताजी के जीवन की घटनायें [२३ खेलने में व्यस्त रहता था। रावले के राजपूत लड़कों के साथ तमन्चा से निशानेबाजी का अभ्यास खूब करता रहता था । घर के आंगन में भमरी, चकरी आदि सदैव फिराये करता, कोड़ियों से निशाने लगाने का खेल भी खूब खेला करता था। पिताजी की मृत्यु के बाद यतिवर श्री देवीहंस जी की सेवा में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। तब उन्होंने मुझे अक्षर ज्ञान के साथ २ कुछ पढ़ाना आरम्भ किया । पास ही के चारभुजाजी के मन्दिर में एक ब्राह्मण पुजारी कुछ महाजनों के लड़कों को पट्टी पहाड़े आदि पढ़ाया करता था। यतिजी महाराज ने मुझे वहां भी जाकर कुछ लिखने पढ़ने की प्रेरणा की। धीरे-धीरे मेरी रुचि विद्या पढ़ने की ओर बढ़ने लगी। यतिजी महाराज मुझे पढ़ा रहे हैं और मैं पढ़ रहा हूं यह जानकर माता को खुशी होती रहती थी। कभी कभी माता गुरु महाराज के दर्शन करने उपाश्रय में जाती थी तब वे उसको मेरे भविष्य के बारे में आशास्पद बातें कहा करते थे जिसको सुनकर उसको हर्षोल्लास होता रहता था, न मालूम उसके मन में मेरे विषय में क्या-क्या आशाएं बंधती होंगी ? वह कभी-कभी मुझ से कहा करती थी कि बेटा रिणमल्ल ! तेरे पिता और दादाजी ने कैसा संकटमय जीवन बिताया है अपने बाप दादाओं की जागीर जो चली गई है उसको तुझे फिर से बनानी है इत्यादि ऐसी कुछ बातें कहा करती थी, उनको सूनकर मेरा अबोधमन क्या-क्या सोचता रहा होगा, इसका मुझे ठीक-सा ज्ञान नहीं है, परंतु मेरे मन में यह संस्कार जम रहा था कि कभी मैं भी बड़ा होऊँगा । जिस तरह पूर्वजों ने जागीर बनाई थी, मैं भी वैसी जागीर फिर बनाऊंगा इत्यादि । शायद इसी कारण मेरे मन में अव्यक्त भाव से अंग्रेजी सत्ता पर द्वष भाव संचित होता रहा, और परिणाम स्वरूप मेरे मन में राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए वह चेतना अकुरित होती गई, जिसके कारण ही बाद के जीवन में मैंने वैसी अनेक प्रवृत्तियों का अनुसरण किया । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001967
Book TitleJinvijay Jivan Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherMahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada
Publication Year1971
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size11 MB
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