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________________ मेरे दादा और पिताजी के जीवन की घटनायें [२५ बाद मुझे अपनी विस्मृत माता के दर्शन करने की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न हुई । परन्तु वह कहाँ पर है ? जीवित है भी या नहीं ? इसका मुझे कुछ पता नहीं था। विगत २० वर्षों में मैंने इच्छापूर्वक उसका स्मरण नहीं होने दिया। कुछ ऐसे प्रसंग भी कभी २ आये, जिनके कारण माता की स्मृति ने मुझे बहुत ही विह्वल बना दिया था, परन्तु बलात्कार पूर्वक मैंने स्मरणों को दबाये रखा।। गुजरात विद्यापीठ के पुरातत्त्व मंदिर के मुख्यासन पर बैठने के बाद मैंने अपने ही जीवन के कुछ पुरातन स्मरणों का भी विश्लेषण करना आरंभ किया और साथ ही अपने पूर्वजों के पुरातात्त्विक वृत्त का भी अनुसन्धान करने की उत्कंठा उत्पन्न हुई। ___ एक दिन बैठा २ प्राचीन गुजराती भाषा में रचित एक जैन रास का अध्ययन कर कहा था। उसमें अनायास एक ऐसा प्रसंग पढ़ने में आया जिसमें किसी माता के पुत्र वियोग का विलाप वर्णन था। मेरे हृदय में उस विलाप ने एक तीव्र वेदना उत्पन्न कर दी । पुस्तक को रख कर मैं रुदन की अनुभूति में लीन हो गया। उस रुदन की वह अनुभूति कैसी थी? इसका वर्णन करना कठिन है। इस अनुभूति का मर्म वे ही सहृदय मनुष्य समझ सकते हैं, जिनके हृदय में कोई वैसा स्निग्ध और आर्द्रतत्त्व संचित हो। इस विषय के कुछ विशेष प्रसंग यथा स्थान लिखे जायेंगे । अभी इतना ही उल्लेखनीय है कि मैं उस अनुभूति के दूसरे ही दिन वि. सं. १६७८ के माघ शुक्ला ६ सोमवार को बिना किसी को कुछ सूचना दिये अकेला ही अहमदाबाद से अजमेर जाने वाली दोपहर बाद की ढाई बजे की गाड़ी में बैठकर अपनी विस्मृत प्रायः जन्म भूमि और जननी के दर्शन की अभिलाषा से रवाना हो गया। अगले दिन प्रातः काल अजमेर स्टेशन पर उतर कर चित्तौड़ खण्डवा लाईन की गाड़ी में बैठकर १ बजे रूपाहेली स्टेशन पर उतरा। गुजरात विद्यापीठ की राष्ट्रीय सेवा स्वीकार करने के लिए मैंने जैन साधु के साम्प्रदायिक वेष का परित्याग कर दिया था और खद्दर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001967
Book TitleJinvijay Jivan Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherMahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada
Publication Year1971
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size11 MB
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