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________________ १०] जिनविजय जीवन-कथा मुझे बचपन से ही अपने पूर्वजों के बारे में कुछ जानकारी करने की उत्कंठा बनी रही, परन्तु उस विषय की कोई साधन सामग्री कहीं प्राप्त नहीं हुई, न मुझे अपने माता पिता से ही दादा पड़दादा के बारे में कोई खास परिचय प्राप्त करने का अवसर मिला। मेरा कुल पंवार जातीय राजपूत वंश का है और मेरे पिता तथा दादा आदि का जीवन सम्बन्ध उस घटना के साथ जुड़ा हुआ था जो वि० सं० १९१४ अर्थात् सन् १८५७ के सैनिक विद्रोह से सम्बन्धित थी। मेरी १०-११ वर्ष की अवस्था में मेरे पिता का स्वर्गवास हो गया और उसमें भी मेरा उनके साथ रहना नहीं हुआ। मेरी माता को यद्यपि मेरे पिता के उस संकटमय जीवन का बहुत कुछ परिचय था परन्तु दुर्भाग्य से मैं, पिताजी की मृत्यु के बाद अधिक समय माता के पास भी नहीं रह सका। कोई १३-१४ वर्ष की अबोध अविकसित अवस्था में मैं माता से भी बिछुड़ गया और फिर कभी उसका मुह नहीं देख पाया। परन्तु पिता की मृत्यु के बाद मेरी माता, पिताजी के उस संकटमय जीवन के बारे में कुछ कुछ बातें मुझे सुनाती रहती थीं, और किस तरह उस सैनिक विद्रोह के समय मेरे दादा तथा बाबा आदि ने भाग लिया, हमारे परिवार के कितने लोग उसमें मारे गये तथा भाग छूटे इत्यादि कितनी ही बातें प्रसंगानुसार वह कहा करती थीं, जिनका विशृंखलित ध्वनिस्मरण मेरे अप्रबुद्ध मानस पट पर अंकित हो गया था। __बाद में जब मुझे उन स्मरणों का चिन्तन होने लगा तो मैं उसका अनुसंधान खोजने लगा। इतिहास तत्त्व की तरफ मेरी अधिक अभिरुचि होने के कारण, मैंने भारतीय इतिहास के अंगोपांगों का अध्ययन करना शुरु किया तो, उसमें सबसे पहले मेरा लक्ष्य राजस्थान के प्राचीन इतिहास को टटोलने में लगा। मेरे हाथ में सबसे पहले कर्नलटॉड का राजस्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001967
Book TitleJinvijay Jivan Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherMahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada
Publication Year1971
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size11 MB
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