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कर कमलों द्वारा कराया गया। प्रायः १७ वर्ष तक मै इस प्रतिष्ठान का निष्ठा पूर्वक संचालन करता रहा । भारत में यह एक अपने प्रकार का प्रतिष्ठान माना गया । इस प्रतिष्ठान में भारतीय प्राचीन साहित्य के हजारों अपूर्व ग्रन्थो का संग्रह किया गया है, जो अन्यत्र दुर्लभ है । इसी तरह इस प्रतिष्ठान द्वारा अनेक प्राचीन ग्रन्थों का उत्तमतया प्रकाशन कार्य भी किया गया है। मेरे संचालन काल में कोई ८० जितने ग्रन्थ प्रकाश में आये । सन् १९६७ में मैं इस प्रतिष्ठान के कार्यभार से मुक्त हुआ । मुझे यह सूचित करते हुये खेद होता है कि वर्तमान राजस्थान सरकार की अश्लाघनीय उपेक्षाबुद्धि के कारण, आज यह प्रतिष्ठान विनिष्टदशा का दुर्भागी वन रहा है । मुझे अपने जीवन के अन्तिम दिनों में इस प्रतिष्ठान की जीवनज्योति के विलय होने की आशंका से मानसिक सन्ताप का अनुभव हो रहा है। देवेच्छा बलीयसी का स्मरण कर मन को शान्त करना ही अपने बस की बात है।
राष्ट्रीय महातीर्थ चित्तौडगढ़ के समीप चन्देरिया गाँव के समीप जो सर्वोदय आश्रम मैंने स्थापित किया वह मेरी श्रम विषयक अभिरुचि का प्रतीक है। मेरे जीवन निर्माण में जिस तरह ज्ञान विषयक अभिरुचि सतत प्रवहमान रही है उसी तरह श्रम विषयक अभिरुचि भी सतत प्रवहमान रही है । कभी कभी तो ज्ञानाभिरुचि की अपेक्षा श्रमाभिरुचि का प्राबल्य अधिक रहा है । अतिप्रिय अध्ययन, संशोधन और लेखन कार्य करते समय मुझे उपरति हो जाती है, परन्तु श्रम के अर्थात् शारीरिक परिश्रम करते हुये मुझे कभी उपरति नहीं हुई।
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