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गया।
शारीरिक परिश्रम के मोह के वश मैंने महत्व के ज्ञानात्मक कार्यों की अनेक बार उपेक्षा की और जिसके कारण मुझे अनेक आर्थिक और सामाजिक लाभों से वंचित रहना पड़ा है, परन्तु मेरा मन सदैव श्रमप्रिय बना रहा है। श्रमजन्य कार्यों में मुझे कभी अरुचि उत्पन्न नहीं हुई । यही कारण है कि मैं जितना आन्तरिक आनन्द चन्देरिया के ग्रामीण पाश्रम में रहता हुया प्राप्त करता रहा उतना आनन्द पूना, बम्बई, अहमदाबाद, शान्ति-निकेतन तथा जयपुर जोधपुर वाले ज्ञानात्मक केन्द्रों में प्राप्त नहीं कर पाया।
यद्यपि मुझे जो कुछ प्रसिद्धि या कार्यसिद्धि प्राप्त हुई वह मेरी ज्ञानाभिरुचि का ही फल है श्रमाभिरुचि से मुझे केवल आन्तरिक संतोष मिलता रहा है। बाकी बाह्य दृष्टी से उसका कोई लाभ या विशेष परिणाम प्राप्त नहीं है ।
चन्देरिया में रहते हुये मुझे दो अन्य स्थानों के निर्माण का अवसर मिला जो दोनों चित्तौड़ में निर्मित है। इनमें एक स्थान जिसका नाम मैंने भामाशाह भारतीभवन रखा है। यह सुप्रसिद्ध दानी और वीर भामाशाह के स्मारकरूप है और दूसरा परन्तु विशेष महत्व वाला श्री हरिभद्र सूरि स्मृति मन्दिर है । यह मन्दिर मैंने उन महान् जैनाचार्य के स्मारकरूप में बनाया है जिनके ज्ञान और जोवन कार्य के प्रति मेरी अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति है। मैं उनको एक महान् शास्त्रकार, धर्मोपदेशक, योगविद् और परम् कोटि के आध्यात्मिक तत्वष्टा मानता हूँ। मेरे अन्धकारपूर्ण और लक्ष्यहीन जीवन मार्ग में, मैंने उन्हें दीपस्तम्भ सा माना है। चित्तौड़ दुर्ग श्री हरिभद्रसूरि का
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