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१३६] जिनविजय जीवन-कथा
रात की गाड़ी से हम रवाना होकर सुबह निम्बाहेड़ा स्टेशन पर उतरे रतलाम वाले यति जी को तो लेने के लिए मंडप्या से एक घोड़ी आई थी जिस पर सवार हो कर वे चले गये, हमने कहा कि हम पैदल ही वहां पहुँच जायेंगे। निम्बाहेड़ा से मंडप्या शायद दस बारह मील की दूरी पर था। इसलिए सबेरा होने पर निम्बाहेड़ा स्टेशन पर कुछ नमकीन, सेव खाकर और पानी पीकर चल दिए । उस जमाने में चाय का बिलकुल ही प्रचार नहीं था। दूध और मिठाई आदि अवश्य मिलते थे; लेकिन उसके लिए हमारे पास बिलकुल ही पैसा नहीं था। उज्जैन से निम्बाहेड़ा तक रेल का किराया सेवक जी ने अपने पास से चुकाया था उनके पास भी अब कोई पैसा शेष नहीं था । और मैं तो सर्वथा ही अकिंचन था । उज्जैन के मठ में से मैं जब रवाना हा तब मेरे पास तो लोहे का एक चीमटा था, दोनों हाथों में पतले से लोहे के दो कड़े थे, और एक पुराना सा छोटा पीतल का कमंडलु था इन धातु के उपकरणों को अपनी एक लंगोटी और आधी फटी हुई कफनी के साथ क्षिप्रा नदी में बहा दिया था। उस समय मैं पूरा निरग्रंथ, अपरिग्रहि, अनगार था, मेरे पास सूत का तार मात्र भी नहीं था । सेवक जी ने मुझो अपना दिगम्बर पना ढांकने के लिए एक पुराना सा जो अंगोछा दिया था और भभूत से तड़की हुई चमड़ी को ढकने के लिए पुराना कुर्ता दिया था उसी को पहन कर मैं उज्जैन से निम्बाहेड़ा तक पहुँचा था। मन्दसौर वाले यतिजी ने मेरा ऐसा विरूप वेष देखकर मन में कुछ सोचा या नहीं, इसका मुझे कुछ मालूम नहीं हुआ। परन्तु उनको इस विषय में कोई जिज्ञासा उत्पन्न हुई हो ऐसा मुझे अनुभव नहीं हुआ। उन्होंने शायद धनचंद यति के कारण मुशे कुछ उपेक्षा ही की दृष्टि से देखा हो अस्तु ।
कोई शाम को तीन चार बजे हम मंडप्या पहुँचे । ज्ञानचन्द जी को उनके पिता के द्वारा हमारे पहुंचने की खबर मिल गई थी, इसलिए वे हमारी प्रतीक्षा कर ही रहे थे । हमारे मकान पर पहुंचने पर ज्ञानचन्द जी ने बड़े सौजन्य के साथ मुझे बुलाया और हंसते हुए बोले कि भैया
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