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जिनविजय जीवन - कथा
रखी है । मैंने कहा स्थानों को मैंने ठीक
तसल्ली हो जायगी । यदि रूपाहेली न गया हो और अन्य कहीं चला गया हो तो उसका पता जरूर तुमको लगाना चाहिये । कहीं ऐसा न हो कि मेरी बदनामी हो इत्यादि । फिर सेवक जी बोले कि अब कहां चलना है क्या बानेण ही चलना है । या उदयपुर चलना है । क्योंकि उदयपुर में भी तुम्हारे योग्य एक दो जगह मैंने देख मैं बाने तो अभी नहीं जाना चाहता । उदयपुर के से देखा नहीं है इसलिए किसी अनजान स्थान में एकदम जाकर रहना मुझे अच्छा नहीं लगता । रतलाम में एक यति जी हैं जिनका शिष्य बाण के पास मंडप्या गाँव में रहता है । वह यति कई बार बानेण आया जाया करता था । उसके गाँव मंडप्या में भी मैं दो चार बार गया आया था । वह यति कुछ पढ़ा-लिखा और बोल चाल में चतुर है । व्यवहार भी उसका बहुत अच्छा है वह मुझ पर स्नेह भी अच्छा रखता हैं । उसकी जो स्त्री है वह भी अच्छी सुशील मालूम देती है । उसने कई बार मुझसे कहा था कि तुम कुछ दिन यहां मंडप्या आकर हमारे पास रहो । मैं कल्प सूत्र आदि अच्छी तरह बांचना जानता हूँ और जन मंदिरों में पूजा आदि, पढ़ाने का काम करता हूँ । इसलिए मैं तुमको यह सब सिखा दूंगा और फिर किसी अच्छी पाठशाला में भर्ती करा दूंगा, जिससे तुम्हारी पढ़ाई अच्छी हो सकेगी। वह यति हॉरमोनियम तथा तबला भी बजाना जानता है, और कंठ भी उसका बहुत अच्छा है जिससे गाना बजाना भी उसे अच्छा मालूम है । उन यति जी के पिता या गुरु रतलाम में रहते हैं, जो अच्छे मालदार भी हैं, और कुछ कारोबार भी करते हैं । वे भी एक दो बार मुझे मंडप्या में मिल गए थे । और उन्होंने अपने चेले से कहा था कि किशनलाल को मेरे पास भेज दो तो मैं रतलाम की अच्छी पाठशाला में इसे भर्ती करा दूं । इसलिए मेरा विचार होता है कि यदि रतलाम में उनका पता लग जाय तो पहले वहां चलें । वे सेवकजी उन मंडप्या वाले जति जी से भी अच्छे परिचित थे । उन यति जी का नाम ज्ञानचन्द जी था । उनके पिता का नाम अब मुझे स्मरण नहीं है । यति ज्ञानचन्द जी की पत्नि जो अच्छी रूपवान और सुशील भी थी । टोंक के एक यति जी की लड़की थी । टोंक वाले यति
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