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________________ (८) मण्डप्या निवास-जैन यतिवेश धारण स्नान कर स्टेशन की तरफ चलने को तैयार हुए तो सेवकजी ने कहा कि पास ही में महाकालेश्वर का मंदिर है वहाँ पर शंकर भगवान के दर्शन करते चलें हम उस मंदिर में गये। ओम नमः शिवाय का मंत्रोच्चारण करते हए मैंने शिवजी की स्तुति का उच्चारण किया, कुछ पांच सात श्लोक महीम्न स्तोत्र के भी बोला। इस प्रकार उस जीवन में अभ्यस्त नमः शिवाय वाक्य का अन्तिम बार उच्चारण करता हुआ मैं मंदिर से बाहर निकला। हम स्टेशन पर पहुँचे और जो गाड़ी मिली उसमें बैठकर रतलाम की ओर रवाना हुए। उस समय तक मेरा यह निश्चय नहीं हुआ था. कि अब मुझे यहां से कहां जाना है । कहां रहना है, और क्या करना है । गाड़ी में बैठे-बैठे मन में कुछ ऐसे विचार उठ रहे थे कि जिनका उद्देश्य मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। यह भी मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं कौन हूँ, क्या हूँ, और क्या करता आ रहा हूँ। मेरी कुछ मानसिक उद्विग्नता को देखकर सेवकजी बोले कि किशन भैया ! क्या विचार कर रहे हो। यह सब कैसा विचित्र नाटक हो गया । मेरी भी समझ में कुछ नहीं पाया। मैंने कहा विधाता ने जो कुछ भाग्य में लिखा है वही होता रहता है । न मालूम अब आगे क्या होने वाला है। मैंने उनसे पूछा कि तुमने सुखानन्द जी से बानेण जाकर धनचन्द जी को क्या कहा, और उसने तुमसे क्या कहा ? सेवकजी बोले कि मैंने उनसे वही बात कही जो मैंने नीमच से चलते वक्त रूपाहेली चले जाने के बारे में कही थी। और कोई बात मैंने उनसे नहीं कही मेरी बात को सुनकर धनचन्द जी न राजी हुए और न नाराज हुए। उन्होंने कहा कि पाहेली चला गया हो तो ठीक ही है, उसकी मां को कुछ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001967
Book TitleJinvijay Jivan Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherMahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada
Publication Year1971
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size11 MB
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