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श्री सुखानन्द जी का-प्रवास और भैरवी-दीक्षा
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पान आदि का भी प्रबन्ध स्वतंत्र था। खाखी महाराज का उनपर कोई नियंत्रण नहीं था। उनके और रूद्र भैरव जी के बीच में कभी कभी संघर्ष हो जाता था। धीरे धीरे उनको ज्ञात हुआ कि खाखी महाराज के पास बहुत बड़ी धन राशि है और रूद्र भैरव उनका मुख्य कर्ता प्रवर्तक है तब उनके दिल में कुछ ईर्ष्या सी पैदा होने लगी।
वर्षा के सावन-भादों दो महीने इस प्रकार व्यतीत हो गये। मेरे मन पर इस सारी परिस्थिति का कोई अच्छा प्रभाव नहीं रहा । एक तरफ पढ़ाने वाले वे पंडित जी भी चले गये जिनके वापस आने के कोई समाचार नहीं मिले उस जमात में किसी के साथ अच्छी बातचीत करने का भी कोई साधन नहीं था। उन मूर्ख और असंस्कारी बाबाओं के पास जाकर बैठने या बोलने का जरा भी मन नहीं होता था। मेरे ऐसे व्यवहार की भी उनको ईर्ष्या होती रहती थी। दूसरी तरफ खाखी महाराज का मुझ पर स्नेह बढ़ रहा था। जिसे देखकर शायद उनके मन में विष भी अंकुरित हो रहा था। इतने में उन स्थानिक बाबाओं और महन्त जी के साथ वाले बाबाओं में किसी कारण को लेकर कड़ी लड़ाई छिड़ पड़ी। वे परस्पर मुक्का-मुक्की और हाथापाई करने लगे। जिसे सुनकर खाखी महाराज को बड़ा दुःख हुआ और रूद्र भैरव को उन्होंने कहा कि तुम जाकर उनको कुछ समझा बुझा कर शांत करो। रूद्र भैरव ने वहां जाकर उन स्थानिक बाबाओं से कहा कि ऐसा लड़ाई झगड़ा क्यों कर रहे हो ? तो झट से वे रूद्र भैरव पर टूट पड़े और उसको बहुत बुरी गालियां देने लगे और साथ में खाखी महाराज के बारे में भी कुछ बुरी-बुरी बातें कहने लगे। खाखी महाराज ने रूद्र भैरव को बुलाकर कहा कि तुम इस समय चुप रहो कुछ मत बोलो यहां का रंग ढंग कुछ अच्छा नहीं दिखाई देता है इसलिए सब तरह से सावधान रहो । मैं इस अखाड़े बाजी को देखकर मनमें शंकित होने लगा । खाखी महाराज की उक्त प्रकार की बात सुनकर मेरे मनमें किसी और. ही प्रकार की पाल्पना उठने लगी।
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