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श्री सुखानन्द जी का-प्रवास और भैरवी-दीक्षा . [११९ चार दिन तक हमेशा अच्छी वर्षा होती रही। इससे क्षिप्रा नदी में पानी का खूब जोरों से पूर आ गया । हमारे मठ के ऊपरी छत से नदी स्पष्ट दिखाई देती थी इसलिए कुतुहलवश मैं बारम्बार ऊपर जाकर नदी के प्रवाह को देखा करता था । और मन में खुश हुआ करता था। सुन रखा था कि उज्जैन बहुत पुराना और बहुत बड़ा शहर है इससे उसे देखने की मनमें इच्छा हुआ करती थी। परन्तु बटुक रूप में खाखी बाबा का स्वांग धारण करने वाले मेरे जैसे चौदह वर्ष के बाबा को शहर में घूमने करने का कहां अवसर था । हाँ आषाढी पूर्णिमा के दिन हम सब बाबाओं की जमात उज्जैन के महाकालेश्वर के दर्शन करने जब गये तब शहर के कुछ भागों में होकर गुजरने का प्रसंग मिला।
पूर्णिमा के बाद निवास सम्बन्धी जब सब कार्य निश्चित हो गये, तब मेरी पढ़ाई का कार्य भी नियमित रूप से चलने लगा। रोज नौ बजे से बारह बजे तक तीन घंटे पंडित जी मुझे पढ़ाते रहते । पढ़ाई में सारस्वत व्याकरण मुख्य था। साथ में अमरकोष और महिम्न स्तोत्र पढ़ना चालू था । महिम्न स्तोत्र तो प्रवास ही में मैंने बहुत कुछ कंठस्थ कर लिया था सारस्वत व्याकरण का भी एक चतुर्थाश जितना भाग सीख लिया था। अमर कोष अब नया शुरू किया था। कोई पन्द्रह बीस दिन पढ़ाई चली होगी कि कुछ दिन की छुट्टी लेकर वे पंडित जी अपने देश चले गये । पंडितजी भी मथुरा ही की तरफ के थे।
साथ में जो अन्य साधु थे वे परस्पर कभी कभी खूब लड़ा करते थे और चीमटे बाजी की भी कभी नौबत आ जाया करती थी। प्रायः वे सब अपठित और असंस्कारी से थे तीन चार उनमें बीस से तीस वर्ष की उम्न तक के थे। बाकी के बड़ी उम्र के तथा चालीस, पचास पच्चपन वर्ष जैसे थे। किसी को दीक्षा धारण किये दो वर्ष, किसी को चार वर्ष, और किसी को पाँच, छहः वर्ष हुए थे। उनकी जाति-पांति का कोई खास पता नहीं लगा । एक दो जाति से शायद ब्राह्मण थे बाकी के सामान्यतः किसान वर्ग के थे। जो ब्राह्मण जाति के थे उनको वे पंडित जी कुछ पढ़ाया करते थे। उनकी पढ़ाई का विषय सामान्य हिन्दी
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