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श्री सुखानन्द जी का-प्रवास और भैरवी दीक्षा
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होगा। जब तक मैं बानेण था तब तक तो उसको यह आशा थी कि दो चार महीने में वह मेरे पास अवश्य पा जायगा । परन्तु यदि उसको यह पता लगेगा कि रिणमल बानेण छोड़कर कहीं और जगह किसी बाबा, जोगी, जति आदि के साथ चला गया है तो उसके दुःख का कोई पार न रहेगा। इसलिए मेरे विषय में रूपाहेली कोई समाचार न जाना चाहिये।
सेवक जी कुछ समझदार आदमी थे और मेरे मन के भाव वे कुछ समझते थे इसलिए उन्होंने आखिर में कहा कि भैया आप ऐसी कोई चिन्ता न करें मैं कुछ ठीक ही सोच समझकर बात करूंगा, इत्यादि बातें बड़ी सहानुभूति के साथ सेवक जी ने मुझे कही और सुनी। बाद में हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए वे मुझसे बिदा हुए। हमारा डेरा नीमच के पास एक मैदान में लगा। दो तीन दिन जमात वहां पर रही और फिर वहां से कूच कर अगले मुकाम के लिए चल पड़ी।
बाबाजी की जमात का नित्य का कार्यक्रम वैसा ही रहता था जैसा सुखानंदजी के वर्णन में किया गया है।
मैं धीरे २ जमात की रीत-भांत से परिचित होता गया पाँच सात दिन में ही वह खाखी जीवन की दिनचर्या अभ्यस्त हो गई। खाखी महाराज मेरे व्यवहार से प्रसन्न रहते थे और मुझ पर उनका स्नेह भी बढ़ता जाता था। रुद्र भैरव जी के साथ वे मुझे भी कुछ निजि कामों की जानकारी कराते रहते थे और कुछ रुपये, पैसे आदि रखने-रखाने के लिए मुझसे भी यथा योग्य काम लेने लगे थे। रुद्र भैरव जी भी मुझसे स्नेह करने लगे थे और जमात सम्बन्धी कई छोटी बड़ी बातें वे मुझे समझाया करते थे। जिस दिन प्रवास होता था उस दिन तो पढ़ाई बंद रहती थी परन्तु जब किसी गांव में सारा दिन मुकाम होता था तब पंडित जी मुझे सारस्वत व्याकरण के सूत्र पढ़ाया करते थे। साथ में उन्होंने मुझे शिव स्तुति विषयक कुछ भजन तथा स्तोत्र भी पढ़ाने का
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