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जिन विजय जीवन-कथा
कर, किस कामना से बाबाजी की जमात का एक खास सदस्य बनकर यह प्रवास कर रहा हूँ। मेरे मन से भूतकाल के सब अनुभव विलुप्त होकर भविष्य की नई आकांक्षाएँ और नये जीवन के विचार अंकुरित हो रहे थे । सेवक जी मुझसे कहने लगे कि मैं आज बानेण जाऊँगा, तुम अच्छी तरह अपनी पढ़ाई के काम में चित्त लगाना खाखी महाराज तथा इनके शिष्य रुद्र भैरवजी और कामदार जी भी तुम्हें अच्छी निगाह से देख रहे हैं, और वे समझते हैं कि थोड़े ही समय में तुम पढ़कर अच्छे होशियार हो जाओगे । खाखी महाराज के चेलों में तुम्हारे जैसा कोई होशियार नहीं मालूम देता इसलिए आगे चलकर खाखी महाराज तुमको ही अपना सब कुछ समझने लगेंगे। तुम्हारी जमात जब उज्जैन पहुँच जायगी तो मैं वहां फिर आ जाऊँगा।
मैंने सेवक जी से कहा कि तुम बानेण जाकर धनचन्द जी यति को क्या कहोगे ? क्योंकि वह तुमसे पूछेगा कि किशनलाल कहाँ गया ? जवाब में सेवक जी ने कहा कि मैं उनको कुछ ऐसी वैसी बातें कह दूंगा जिससे उनको कोई विशेष विचार न होगा । मैं कह दूंगा कि किशनलाल को रूपाहेली वाले कोई लोग सुखानन्द जी के मेले में मिल गये थे और उन लोगों ने किशनलाल की माँ की बीमारी आदि की बातें कही जिससे वह मेरे साथ वापस बानेण न आकर रूपाहेली चले जाने की बात कर रहा था। मेले में से वह कहां और कब चला गया इसका मुझे कोई पता न लगा । मैंने दो दिन तक मेले में उसकी खूब तलाश की परन्तु मुझे कहीं कुछ पता न चला। शायद वह रूपाहेली चला गया होगा इत्यादि । सेवकजी की ये बातें मुझे न अच्छी लगी और न बुरी लगी। मैं सुनकर चुप हो गया । फिर मैंने कहा कि तुम चाहे जैसी बात कर धनचन्द को समझा देना परन्तु यह मत कहना कि वह खाखी महाराज का चेला बन गया है। मेरा मन अपनी मां को याद कर दुखी होता रहता है । परन्तु उसके पास चले जाने का भी मेरा मन नहीं हो रहा । न जाने मैं कब उसके पास जाऊँ। अगर वह सुनलेगी कि मेरा बेटा किसी बावे का चेला हो गया है तो इससे उसको बहुत ही आघात
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