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श्री सुखानन्द जी का प्रवास और भैरवी-दीक्षा [१११ रखे हैं सो तुम उठाकर ले जाओ, में जहां और सब साधु संत भोजन कर रहे थे वहां पर एक किनारे खड़ा रहकर देखने लगा । भोजनार्थियों में तरह २ की हा-हा हो रही थी और परोसने वालों को जोर २ से पुकार रहे थे। एक तरफ पुरुष वर्ग बैठा था, दूसरी तरफ वे चार पांच स्त्रियाँ जो बैरागण, जोगन आदि के भेष में थी वे बैठी खा रही थी। खाखरे के पत्तों की बनाई हुई पत्तल पर मालपुए रखे हुए थे और दोनों में दाल दी गई थी। अलबत्ता भोजन बहुत अच्छा बना था, दाल भी बहुत अच्छी मसालेदार थी इसलिए सब खूब डट २ कर खा रहे थे। कोई घन्टा डेढ़ घन्टा तक यह भोजन व्यवहार चलता रहा । साधु, संतों के खा लेने के बाद फिर और जो नौकर चाकर आदि थे उनको भोजन कराया गया । साधु-संतों के भोजन का इन्तजाम रुद्र भैरवजी करते थे
और बाकी के लोगों का प्रबन्ध कामदार जी देखते थे। यह व्यवस्था बाबाजी की उस जमात के लिए कायमी बनी हुई थी।
जावद में दो दिन मुकाम रहा । फिर वहां से नीमच के लिए प्रयाण हुआ। मेरे साथ आये सेवक जी भी अपने गांव बानेण जाना चाहते थे इसलिए उन्होंने खाखी महाराज से जाने की इजाजत मांगी। बाबाजी ने प्रसन्न होकर उनको साफा आदि बक्षीस दिया और साथ में कुछ रुपये भी दिए, शायद बाबाजी की प्रसन्नता का कारण यह हो सकता है कि सेवकजी ने मुझे बाबा जी का शिष्य बन जाने में विशेष योग दिया था।
हम लोग नीमच की तरफ जा रहे थे । तब सेवकजी मेरे साथ हो लिए । मेरे हाथ में चीमटा, कमंडलु आदि देखकर तथा सारे शरीर पर भभूत लगी हुई देखकर उनके मन में कुछ विशेष विचार आ रहे थे। मैं तो अपने उस स्वांग को देखकर मन ही मन राजी हो रहा था। मेरे मन में ऐसा कोई गम्भीर भाव पैदा नहीं हो रहा था कि जिससे मेरे चेहरे पर उसकी कुछ झलक दिखाई दे। दो तीन दिन पहले किस वेश में, किस विचार में सुखानन्द जी आया था और आज किस रूप को धारण
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