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तनोति विपुलानर्थान् तत्त्व-मन्त्रसमन्वितान् ।
त्राणं च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते ॥ पुर्यष्टक पदवाच्य तीस तत्त्व एवं मन्त्रपदप्राप्त जीव पदार्थो के साथ अनेक पदार्थ का विस्तार करने वाला शास्त्र (और) जिसमें त्राण करने की शक्ति है 'तन्त्र' कहलाता है । तन्त्र का यह निरुक्तिलभ्य अर्थ है । दार्शनिक क्षेत्र में तन्त्रशास्त्र पाशुपत मत एवं शैवमत के नाम से प्रसिद्ध है । पाशुपत मत प्राचीन है, उसके प्रवर्तक नकुलीश है । दोनों मत में समानता है । भेद अल्प ही है। शैवदर्शन :
शैवदर्शन में तीन मुख्य तत्त्व है । (१) पति (२) पशु (३) पाश, 'पति' का अर्थ है परमेश्वर शिवतत्त्व । पशु से अर्थ है जीवात्मा और पाश का मतलब है बंधन । पाश से बद्ध जीव की मुक्ति हेतु पाश के मूल का ज्ञान, पाशमुक्ति के साधनों का ज्ञान एवं तत्त्वज्ञान आवश्यक है इसलिए ये तीन ज्ञान गौण पदार्थ के रूप में स्वीकृत है । पति :
पति का अर्थ है-ईश्वर (पतिरीश्वरः स० द०) शैवदर्शन में पति के रूप में "शिवतत्त्व' को माना जाता है । 'शिव' शब्द के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ मंगल-कल्याण-मोक्ष इत्यादि है । लेकिन प्रस्तुत में प्रवृत्तिनिमित्तलभ्य पारिभाषिक अर्थ अभिप्रेत है । शिव का मतलब है शिवत्व धर्म के साथ जिसका सम्बन्ध हो । शिवत्वधर्म का मतलब पाशमुक्तता । पति = परमेश्वर है अनादि पाशमुक्त है । इसलिये शिवत्वयुक्त = शिव है । ईश्वर के अनुग्रह
१. पतिविद्ये तथाविद्या पशुः पाशश्च कारणम् ।
तन्निवृत्ताविति प्रोक्ताः पदार्थाः षट् समासतः ॥
यद्यपि मुख्यानि तत्त्वानि पति-पशु-पाशरूपाणि त्रिण्येव तथापि पाशमूलस्य पाशनिवृत्तिसाधनस्य च ज्ञानं तत्त्वज्ञानं चेत्येतत्त्रयमप्यावश्यकमिति षडतत्त्वान्यत्रोक्तानीति बोध्यम् । (सर्वदर्शनसङ्ग्रह)
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