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ज्ञानदीपिकावृत्तिः __ भाषा-यद्यपि श्री भगवती के नव कोटि नाम हैं, तो भी स्थान पूर्ति के लिये कितनेक नामों का यहाँ उल्लेख करते हैं । हे परमेश्वरी ! माया, १. कुण्डलिनी, २. क्रिया, ३. मधुमती, ४. काली, ५. कला, ६. मालिनी, ७. मातङ्गी, ८. विजया, ९. जया, १०. भगवती, ११. देवी, १२. शिवा, १३. शाम्भवी, १४. शक्ति, १५. शङ्करवल्लभा, १६. त्रिनयना, १७. वाग्वादिनी, १८. भैरवी, १९. ही कारी, २०. त्रिपुरा, २१. परापरमयी, २२. माता, २३. कुमारी, २४. इत्यसि = यह आप के चौवीश नाम हैं । इन नामों का केवल पाठ करने से ही साधक पुरुष के पास सभी प्रकार की सिद्धियाँ उपस्थित रहती हैं ॥१८॥
विशेषार्थः-इस श्लोक में बीजाक्षर मन्त्रों का भी उद्धार किया गया है । जैसे माया शब्द से मायाबीज ही, मालिनी शब्द से लक्ष्मीबीज श्री, काली शब्द से कामबीज क्ली, शक्ति शब्द से शक्तिबीज सौँ और वाग्वादिनी शब्द से वाग्बीज ऐं का ग्रहण करना चाहिये । इन बीजाक्षरों की आदि में ॐ तथा अन्त में नमः लगा कर मन्त्र सिद्ध कर लेना जैसे ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं हसौं नमः । इस मन्त्र को नित्य १००८ बार या १०८ बार जपने से सुख, आरोग्य, वश्यता, समृद्धि, बन्दीमोक्ष, आदि समस्त कार्य, साधक जनों के सिद्ध हो जाते हैं । साधक पुरुषों को चाहिये कि, सौम्य कार्य में श्वेत मूर्ति का, वश्य कार्य में रक्त मूर्ति का मोहन कार्य में पीत मूर्ति का, उच्चाटन कार्य में कृष्ण मूर्ति का ध्यान करें। टीका में लिखे हुए चौसठ योगिनियों के नामों का जाप करने से और पूर्वोक्त योगिनीयों के यन्त्र को कुंकुम, गोरोचन आदि अष्टगन्ध से भूर्जपत्र पर लिखकर तथा धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूज कर योग, नक्षत्र, राशि, ग्रह और नरसिंह, वीरभद्र, क्षेत्रपाल, मणिभद्र आदि अपने गणों के सहित इन विलक्षण स्वरूपवाली चौसठ योगिनियों का ध्यान करने से योगिनियों के दोष नष्ट हो जाते हैं ॥१८॥
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