________________
श्रीत्रिपुराभारतीस्तवः
= नानुभवन्ति । ईदृग्रूपवाग्बीजपरमशक्ति ध्यानादपि प्राप्तज्ञानमहानन्दा योगिनो मोक्षपदमवाप्नुवन्ति । न च संसारे दुःखभाण्डागारे भूय उत्पद्यन्त इति द्वितीयवृत्तार्थः ॥२॥
____ भाषा-इस श्लोक में श्रीत्रिपुरा देवी के प्रथम बीजाक्षर की विशेषता को कहते हैं । हे देवी ! भगवती ! त्रपुषीलतातनुलसत्तन्तूस्थितिस्पद्धिनी- उष्णकाल में अरहट्ट की घड़ियों के जल से तृप्त हई खीरा ककड़ी की बेल के पतले पतले और फैलते हुए आँटेदार तन्तुओं के समान शोभावाली या मात्रा जो मात्रा तव प्रथमे वाग्बीजेआप के पहले अर्थात् ऐंकाररूप बीजाक्षर में स्थिता स्थित है ताम्-उस ऐसे रूपवाली मात्रा को वयम् हमलोग मन्महे वाग्बीज का मुख्य अङ्ग मानते हैं । कुण्डलिनी शक्ति: यह कुण्डलाकार मात्रारूप शक्ति विश्वजनन-व्यापारबद्धोद्यमा =समग्र जगत को रचने वाली है इत्थम् इस प्रकार ज्ञात्वा चित्त में जान लेने से नराः=संसारी जन पुनः=फिर जननीगर्भे माता के उदर में अर्भकत्वम् बालकपने को न स्पृशन्ति प्राप्त नहीं होते ॥२॥
भावार्थ:-जो कोई पुरुष वाग्बीज ऐंकार में स्थित खीरा ककड़ी की बेल के आँटेदार तन्तुरूप मात्रा को सब जगत की सृष्टिकारक कुण्डलिनी शक्ति मानकर उस का एकाग्र चित्त से ध्यान करते हैं वे पुरुष ज्ञानरूप आनन्द समुद्र में मग्नचित्त होकर अन्त में मोक्षपद को प्राप्त हो जाते हैं, फिर वे इस महादुःखरूप संसार में आकर जन्म, मरण के क्लेशों को नहीं भोगते हैं ॥२॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org