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राग भी प्रतिप्राणि भिन्न है । 'राग' से 'प्रकृति' पैदा होती है और प्रकृति से तीन 'गुण' (सत्त्व-रजस्-तमस्) जन्म लेते है ।
कला-काल-नियति-विद्या-राग-प्रकृति और गुण इन साततत्त्वों को 'कलादि सप्तक' कहा जाता है ।
सत्त्वादि तीन गुण से मन-बुद्धि-अहंकाररूप अन्तःकरण उत्पन्न होता है । तीन गुण से ही शब्दादि पंच विषय उसके आश्रयभूत पंचमहाभूत, पंचतन्मात्र, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय की उत्पत्ति होती है ।
कलादि सात + अन्तःकरण त्रय + पंच विषय + पंचतन्मात्र + पंच ज्ञानेन्द्रिय + पंच कर्मेन्द्रिय = इन तीस तत्त्वो की पुर्यष्टक संज्ञा है । इन तीस तत्त्वो की सहाय से सूक्ष्म देह का निर्माण होता है । सूक्ष्मदेह से स्थूलदेह जन्म लेता है ।
कलादि तीस तत्त्वो से युक्त जीवात्मा की 'सकल' संज्ञा है ।। शैवाभिमत सृष्टिउत्पत्ति की प्रक्रिया सांख्यदर्शन से मिलती जुलती है ।
प्रलयाकल :
. 'कला' की उत्पत्ति सृष्टि के आरंभ काल में होती है । प्रलयकाल ___ में स्थूल पृथ्व्यादि से लेकर कला तकके पदार्थो का उपसंहार होता है । - कला के उपसंहार से प्रलयकाल में जीवात्मा को अकल अवस्था प्राप्त होती
है । उसको प्रलयाकल कहते है । साधारण जीवात्मा का संसार में आवर्तन प्रलयकाल पूर्ण होने के बाद पुन: प्रारंभ होता है । जिस जीवात्मा के कर्म पाश और मल पाश परिपक्व हो जाते है वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
१. स्यात् पुर्यष्टकमन्तःकरणं धीकर्म करणानि । पुर्यष्टकं नाम प्रतिपुरुषं नियतः सर्गादारभ्य कल्पान्तं मोक्षान्तं वा स्थितः पृथिव्यादिकलापर्यन्तस्त्रिंशत्तत्त्वात्मकः सूक्ष्मो देहः ।
२. प्रलयाकलोऽपि द्विविधः-पक्वपाशद्वयस्तद्विलक्षणश्च । तत्र प्रथमो मोक्षं प्राप्नोति, द्वितीयस्तु पुर्यष्टकवशान्नानाविधजन्मभाग् भवति ।
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