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( ही )
स्वयं ही घूमता रहता है और जीवों को एक नियत क्रम के अनुसार इधर उधर ले जाता है । जब यह चक्र पूर्ण हो जाता है तो जीव स्वतः ही मुक्त हो जाते हैं । ऐसे वाद का प्रादुर्भाव उसी समय होता है जब मानवबुद्धि पराजित हो जाती है ।
त्रिपिटक में पूरण काश्यप और मंखली गोशालक के मतों का वर्णन आया है। एक के बाद का नाम 'अक्रियावाद' तथा दूसरे के वाद का नाम 'नियतिवाद' रखा गया है । किंतु इन दोनों में सिद्धान्ततः विशेष भेद नहीं । यही कारण है कि कुछ समय बाद पूरणकाश्यप के अनुयायी जीवकों अर्थात् गोशालक के अनुयायियों में मिल गये थे । २ आजीवकों और जैनों में आचार तथा तत्त्वज्ञान संबंधी बहुत सी बातों में समानता थी । किन्तु मुख्य भेद नियतिवाद तथा पुरुषार्थ वाद में था । जैनागमों में ऐसे कई उल्लेख उपलब्ध होते हैं जिनसे प्रगट है कि भगवान् महावीर विख्यात नियतिवादियों के मत में परिवर्तन कराया था । ४ संभव है कि धीरे धीरे आजीवक जैन में सम्मिलित हो कर लुप्त हो गए हों । पकुध का मत भी अक्रियावादी है, अतः वह नियतिमें समाविष्ट हो जाता है ।
वाद
सामञ्ञफलसुत्त में गोशालक के नियतिवाद का निम्नलिखित वर्णन है :
" प्राणियों की अपवित्रता का कुछ भी कारण नहीं है, कारण बिना ही वे अपवित्र होते हैं । उनके अपवित्र होने में न कोई
१ दीघनिकाय - सामञ्ञफलसुत्त
३
बुद्धचरित ( कोशांबी) पृ० १७९ ।
3 नियतिवाद का विस्तृत वर्णन 'उत्थान' महावीरांक में देखें – पृ० ७४ ।
४ उपासक दशांग अ० ७
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