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( ९१ ) कारण है, न हेतु । प्राणियों की शुद्धता का भी कोई कारण अथवा हेतु नहीं है। हेतु और कारण के बिना ही वे शुद्ध होते हैं। अपने सामर्थ्य के बल पर कुछ नहीं होता। पुरुष के सामर्थ्य के कारण किसी भी पदार्थ की सत्ता नहीं है। न बल है, न वीर्य न ही पुरुष की शक्ति अथवा पराक्रम। सभी सत्त्व, सभी प्राणी, सभी जीव अवश हैं, दुर्बल हैं, वीर्यविहीन हैं। उनमें नियति, जाति, वैशिष्टय और स्वभाव के कारण परिवर्तन होता है। छः जातियों में से किसी भी एक जाति में रह कर सब दुखों का उपभोग किया जाता है। ८४ लाख महाकल्प के चक्र में घूमने के बाद बुद्धिमान् और मूर्ख दोंनों के ही दुःख का नाश हो जाता है। यदि कोई कहे कि 'मैं शील, व्रत, तप अथवा ब्रह्मचर्य से अपरिपक्व कर्मों को परिपक्व करूँगा, अथवा परिपक्व हुए कर्मों का भोग कर उन्हें नामशेष कर दूंगा' तो ऐसी बात कभी भी होने वाली नहीं। इस संसार में सुख दुःख इस प्रकार अवस्थित हैं कि उन्हें परिमित पाली से नापा जा सकता है। उनमें वृद्धि या हानि नही हो सकती। जिस प्रकार सूत की गोली उतनी ही दूर जाती है जितना लंबा उसमें धागा होता है उसी प्रकार बुद्धिमान् और मूर्ख दोनों के दुःख-संसार का नाश परिवर्त में पड़कर ही होता है।" .. इसी प्रकार का ही किन्तु जरा आकर्षक ढंग का वर्णन जैनों के उपासक दशांग और भगवती सूत्र में है। इनके अतिरिक्त । सूत्रकृतांग में भी अनेक स्थलों पर इस वाद के संबंध में ज्ञातव्य बातें लिखी हैं।
१ बुद्ध चरित पृ० १७१ (कोशांबी) २ अध्ययन ६ व ७। 3 शतक १५ । ४ २. १.१२, २. ६ ।
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