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( ८१ ) जहाँ अनेक कारणों का उल्लेख किया है वहाँ काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत, अथवा पुरुष अथवा इन सब के संयोग का प्रतिपादन है। कालादि को कारण मानने वाले वैदिक हों या अवैदिक, किंतु इन कारणों में भी कर्म का समावेश नहीं है।
अब इस बात की शोध करना शेष है कि जब उपनिषद् काल में भी वैदिक परंपरा में कर्म या अदृष्ट सर्वमान्य केन्द्रस्थ तत्त्व नहीं था तब वैदिक परंपरा में इस विचार का आयात कौनसी परंपरा से हुआ ? कुछ विद्वानों का मत है कि आर्यों ने ये विचार भारत के आदिवासियों (Primitive people) से ग्रहण किए। प्रोफेसर हिरियन्ना ने इस मान्यता का निराकरण यह लिख कर किया है कि आदिवासियों का यह सिद्धांत कि आत्मा मर कर वनस्पति
आदि में जाता है-अंधविश्वास (Superstition) था। तत्त्वतः उन के इस विचार को तर्काश्रित नहीं कहा जा सकता। पुनर्जन्म के सिद्धान्त का लक्ष्य तो मनुष्य की तार्किक और नैतिक चेतना को सन्तुष्ट करना है।
आदिवासियों की यह मान्यता कि मनुष्य का जीव मर कर वनस्पति आदि के रूप में जन्म लेता है, केवल अंधविश्वास कह कर निराकृत नहीं की जा सकती। उपनिषदों से पहले जिस कर्मवाद के सिद्धान्त को वैदिक देववाद से विकसित नहीं किया जा सका, उस कर्मवाद का मूल आदिवासियों की पूर्वोक्त मान्यता से सरलतया संबद्ध है। इस तथ्य की प्रतीति उस समय होती है जब हम जैनधर्म सम्मत जीववाद और कर्मवाद के गहन मूल को ढूढने का प्रयास करते हैं। जैनपरंपरा का प्राचीन नाम कुछ भी हो, किन्तु यह बात निश्चित है कि वह उपनिषदों से स्वतंत्र और प्राचीन है।
१ इसके उल्लेख और निराकरण के लिए देखें-Hiriyanna: Outlines of Indian Philosophy p. 79.
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