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________________ और धीरे धीरे उसका रूप इतना जटिल हो गया कि यदि साधारण व्यक्ति यज्ञ करना चाहें तो यज्ञ कर्म में निष्णात पुरोहितों की सहायता के बिना इसकी संभावना ही नहीं थी। इस प्रकार वैदिक ब्राह्मणों का समस्त तत्त्वज्ञान देव तथा उसे प्रसन्न करने के साधन यज्ञकर्म की सीमा में विकसित हुआ। ब्राह्मणकाल के पश्चात् रचित उपनिषद् भी वेदों और ब्राह्मणों का अंतिम भाग होने के कारण वैदिक साहित्य के ही अंग हैं और उन्हें 'वेदान्त' कहते हैं। किंतु इनसे पता चलता है कि वेद परंपरा अर्थात् देव तथा यज्ञ परंपरा का अंत निकट ही था। इन में ऐसे नवीन विचार उपलब्ध होते हैं जो वेद व ब्राह्मण गंथों में नहीं थे। उनमें संसार और कर्म-अदृष्ट-विषयक नूतन विचार भी दृग्गोचर होते हैं। ये विचार वैदिक परंपरा के उपनिषदों में कहाँ से आए, इनका उद्भव विकास के नियमानुसार वैदिक विचारों से ही हुआ अथवा अवैदिक परंपरा के विचारकों से वैदिक विचारकों ने इन्हें ग्रहण किया--इन बातों का निर्णय आधुनिक विद्वान् अभी तक नहीं कर सके। किंतु यह बात निश्चित है कि वैदिक साहित्य में सर्व प्रथम उपनिषदों में ही इन विचारों का दर्शन होता है। आधुनिक विद्वानों में इस विषय में कोई विवाद नहीं है कि उपनिषदों के पूर्व कालीन वैदिक साहित्य में संसार और कर्म- अदृष्ट की कल्पना का स्पष्ट रूप दिखाई नहीं देता। कर्म कारण है ऐसा वाद भी उपनिषदों का सर्व सम्मत वाद हो यह भी नहीं कहा जा सकता। अतः इसे वैदिक विचार धारा का मौलिक विचार स्वीकार नहीं किया जा सकता। श्वेताश्वतर उपनिषद् में १ Hiriyanna: Outlines of Indian Philosophy p. 80. Belvelkar: History of Indian Philosophy II. p. 82... २ श्वेताश्वतर १.२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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