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अंधे का दृष्टान्त देकर बताया है कि किस प्रकार नाम और रूप दोनों परस्पर सापेक्ष होकर उत्पन्न व प्रवृत्त होते हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि एक दूसरे के बिना दोनों ही निस्तेज हैं और कुछ भी करने में असमर्थ हैं।
जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने भी इसी रूपक के आधार पर कर्म और जीव के परस्पर बंध और उनकी कार्यकारिता का वर्णन किया है।
वस्तुतः न्याय वैशेषिकादि भी इसी प्रकार यह कह सकते हैं कि जीव तथा जड़ परस्पर मिले हुए हैं और सापेक्ष होकर ही प्रवृत्त होते हैं। इसी कारण संसाररूपी रथ गतिमान होता है, अन्यथा नहीं। अकेला जड़ अथवा अकेला चेतन संसार का रथ चलाने में समर्थ नहीं। चड़ और चेतन दोनों संसार रूपी रथ के दो चक्र हैं। ___ मायावादी वेदान्तियों ने अद्वैत ब्रह्म मान कर भी यह स्वीकार किया कि अनीर्वचनीय माया के विना संसार की घटना अशक्य है, अतः ब्रह्म और माया के योग से ही संसार चक्र की प्रवृत्ति होती है। सभी दर्शनों की सामान्य मान्यता है कि संसारचक्र की प्रवृत्ति दो परस्पर विरोधी प्रकृति वाले तत्त्वों के संसर्ग से होती है। इन दोनों के नामों में भेद हो सकता है किंतु सूक्ष्मता से विचार करने पर तात्त्विक भेद प्रतीत नहीं होता। (४) मोक्ष का स्वरूप
बंधचर्चा के समय यह बताया गया है कि अनात्मा में आत्माभिमान बंध कहलाता है। इससे यह फलित होता है
१ विसुद्धिमग्ग १८.३५. २ समयसार ३४०-३४३.
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