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शरीर की उत्पत्ति होती है और शरीर के उत्पन्न होने के उपरांत नई नई वासनाओं का जन्म होता है। यह वासना फिर नए शरीर को उत्पन्न करती है। इस प्रकार बीज व अंकुर के समान ये दोनों ही जीव के साथ अनादि काल से हैं। अनादि अविद्या के कारण अनात्मा में जो आत्मग्रहण की बुद्धि है, उसी के कारण बाह्य विषयों में तृष्णा या राग उत्पन्न होता है और इस से ही संसार परंपरा चलती रहती है। अविद्या का निरोध हो जाने पर बंधन कट जाता है और फिर तृष्णा के लिए कोई अवकाश नहीं रहता। अतः नया उपादान नहीं होता और संसार के मूल पर कुठाराघांत हो जाने से वह नष्ट हो जाता है।
साख्यों ने एक लंगड़े और एक अंधे व्यक्ति के लोक-प्रसिद्ध उदाहरण से सिद्ध किया है कि संसारचक्र का प्रवर्तन जड़ चेतन इन दोनों के संयोग से होता है। एकाकी पुरुष अथवा प्रकृति में संसार के निर्माण की शक्ति नहीं है। किंतु जिस समय ये दोनों मिलते हैं, उस समय ही संसार की प्रवृत्ति होती है। जब तक पुरुष जड़ प्रकृति को अपनी शक्ति प्रदान नहीं करता, जब तक उसमें यह सामर्थ्य नहीं कि वह शरीर इन्द्रिय आदि रूप में परिणत हो सके। उसी प्रकार यदि प्रकृति की जड़ शक्ति पुरुष को प्राप्त न हो तो वह भी अकेले शरीरादि का निर्माण करने में समर्थ नहीं। इन दोनों का संबंध अनादि काल से है, अतः संसारचक्र भी अनादि काल से ही प्रवृत्त हुआ है। __ बौद्धों के मतानुसार नाम और रूप के संसर्ग से संसार चक्र अनादि काल से प्रवृत्त हुआ है। विसुद्धिमग्ग के रचयिता बुद्धघोषाचार्य ने भी सांख्य शास्त्रों में प्रसिद्ध इसी लंगड़े और
दोनों के निर्माण का
ही संसार
प्रदान न
सांख्यकारिका २१
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