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उपनिषदों के तत्त्वज्ञान के साथ ओतप्रोत हो, यह बात प्राचीन उपनिषदों में दृग्गोचर नहीं होती। यह तथ्य प्राचीन उपनिषदों के किसी भी विद्यार्थी को अज्ञात नहीं है। यह भी विदित होता है कि कर्म संबंधी ये विचार उपनिषद्भिन्न परंपरा से उपनिषदों में
आए और औपनिषद तत्त्वज्ञान के साथ उनकी संगति बिठाने का प्रयत्न किया जाता रहा किन्तु वह अधूरा ही रहा। इस विषय में विशेष विचार कर्म विषयक प्रकरण में किया जाएगा। यहाँ इतना ही उल्लेख पर्याप्त है कि जगत् को ईश्वरकृत मान कर भी न्यायवैशेषिक दर्शनों ने संसार को अनादि माना है, और चेतन तथा शरीर के संबंध को भी अनादि ही माना है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि उनके मत में आत्मा और अनात्मा का बंध अनादि है। किंतु उपनिषद् सम्मत विविध सृष्टिप्रक्रिया में जीव की सत्ता ही सर्वत्र अनादि सिद्ध नहीं होती तो फिर आत्मा और अनात्मा के संबंध को अनादि कहने का अवसर ही कैसे प्राप्त हो सकता है ? कर्म सिद्धान्त के अनुसार तो आत्मा-अनात्मा के संबंध को अनादि मानना अनिवार्य है। यदि ऐसा न माना जाए तो कर्म सिद्धांत की मान्यता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। यही कारण है कि उपनिषदों के टीकाकारों में शंकर को ब्रह्म और माया का संबंध अनादि मानना पड़ा, भास्कराचार्य के लिए सत्यरूप उपाधि का ब्रह्म के साथ अनादि संबंध मानने के अतिरिक्त कोई मार्ग न था, रामानुज ने भी बद्ध जीव को अनादि काल से ही बद्ध स्वीकार किया । निम्बार्क और मध्व ने भी अविद्या तथा कर्म के कारण जीव का संसार माना है और यह अविद्या व कर्म भी अनादि हैं। वल्लभ के मतानुसार भी जिस प्रकार ब्रह्म अनादि
१ "अनादिश्चेतनस्य शरीरयोगः, अनादिश्च रागानुबन्ध इति" न्याय भा० ३.१.२५; "एवं चानादिः संसारोऽपवर्गान्तः" न्यायवा० ३.१.२७; "अनादि-चेतनस्य शरीरयोगः" न्यायवा० ३.१.२८
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