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( ५७ ) (४) जैन मत
जैन आगर्मों में भी जीव के कर्तृत्व और भोकतृत्व का वर्णन है। उत्तराध्ययन के 'कम्मा रणाणाविहा कटु' (३-२) अनेक प्रकार के कर्म करके, 'कडाण कम्माण न मोकखु अत्थि' (४.३; १३.१०) किए हुए कर्म को भोगे विना छुटकारा नहीं, 'कत्तारमेव अगुजाई कम्म' (१३.२३)-कर्म कर्ता का अनुसरण करता है, इत्यादि वाक्य असंदिग्ध रूपेण जीव के कर्तृत्व और भोक्तत्व का वर्णन करते हैं। किन्तु जिस प्रकार उपनिषदों में जीवात्मा को कर्त्ता और भोक्ता मान कर भी परमात्मा को दोनों से रहित माना गया है, उसी प्रकार जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने जीव के कर्मकर्तृत्व और कर्मभोक्तत्व को व्यवहार दृष्टि से माना है और यह भी स्पष्टीकरण किया है कि निश्चय दृष्टि से जीव कर्म का कर्ता भी नहीं और भोक्ता भी नहीं।' इस विषय को उपनिषत् की भाषा में इस प्रकार कह सकते हैंसंसारी जीव कर्म का कर्ता है, किंतु शुद्ध जीव कर्म का कर्ता नहीं है।
उपनिषदों के मतानुसार भी संसारी आत्मा और परमात्मा एक ही हैं और जैन मत में भी संसारी जीव तथा शुद्ध जीव एक ही हैं। दोनों में यदि भेद है तो वह यही है कि उपनिषदों के अनुसार परमात्मा एक ही है और जैनमत में शुद्ध जीव अनेक हैं। किंतु जैनों द्वारा सम्मत संग्रहनय की अपेक्षा से यह भेदरेखा भी दूर हो जाती है। संग्रहनय का मत है कि शुद्ध जीव चैतन्य स्वरूप की दृष्टि से एक ही हैं। जब हम इस बात का स्मरण करते हैं कि भगवान महावीर ने गौतम गणधर से कहा था कि भविष्य में हम एक सदृश होने वाले हैं, तब निर्वाण अवस्था
१ समयसार ९३; और ९८ से आगे
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