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( ५६ ) हुआ है"।' “पाप करने वाले को ही उसका फल भोगना पड़ता है"। "इस संसार में कोई ऐसा स्थान नहीं जहां चले जाने से मनुष्य पाप के फल से बच जाए3" इत्यादि । बुद्ध ने अपने विषय में कहा है,
'इत एकनवतिकल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः।
तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः॥' आज से पूर्व ६१ वें कल्प में मैंने अपने बल से एक मनुष्य का बध किया था, उस कर्म के विपाक के कारण आज मेरा पाँव घायल हुआ है।' बुद्ध का यह कथन भी शाश्वत आत्मा की अपेक्षा से नहीं, अपितु संतान की अपेक्षा से ही समझना चाहिए।
बौद्धों के मत के अनुसार कर्तृत्व का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। कुशल प्रथा अकुशल चित्त की उत्पत्ति ही कुशल या अकुशल कर्म का कर्तृत्व है। उनके मत में कर्ता और क्रिया भिन्न नहीं हैं, वे दोनों एक ही हैं। क्रिया ही कर्ता है और कर्ता ही क्रिया है। चित्त और उसकी उत्पत्ति में कुछ भी भेद नहीं। यही बात भोक्तृत्व के विषय में है। भोग और भोक्ता भिन्न नहीं हैं। दुःखवेदना के रूप में चित्त की उत्पत्ति ही चित्त का भोक्तृत्व है। इसीलिए बुद्धघोष ने कहा है कि कर्म का कोई कर्ता नहीं और विपाक का कोई अनुभव करने वाला (वेदक) नहीं केवल शुद्ध धर्मों की प्रवृत्ति होती है।
१ अत्तना व कतं पापं अत्तजं अत्तसंभवं-धम्मपद १६१ । २ धम्मपद ६६ 3 धम्मपद १२७
४ विसुद्धिमग्ग १९.२० । इस विषय पर विशेष विचार 'बुद्ध का अनात्मवाद' इस शिर्षक के अन्तर्गत किया गया है। और भी 'न्यायावतार' टि० पृ० १५२ देखें।
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