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( ५२ ) दिखाई देता है। यह आत्मा शुद्ध, स्थिर, अचल, आसक्तिरहित, दुःखरहित, इच्छारहित, द्रष्टा के समान है और अपने कर्मों का भोग करते हुए दृग्गोचर होता है। उसी प्रकार तीन गुणरूपी वस्त्र से अपने स्वरूप को आच्छादित किए हुए ज्ञात होता है। (२) दार्शनिकों का मत
उपनिषदों के उक्त परमात्मा के वर्णन को निरीश्वर सांख्यों ने पुरुष में स्वीकार किया है और परमात्मा की तरह जीवात्मा पुरुष को अकर्ता और अभोक्ता माना है। सांख्यमत में पुरुष व्यतिरिक्त किसी परमात्मा का अस्तित्व ही नहीं था। अतः परमात्मा के धर्मों का पुरुष में आरोप कर और पुरुष को अकर्ता व अभोक्ता कह कर उसे मात्र द्रष्टा के रूप में स्वीकार किया गया। ___ इसके विपरीत नैयायिक-वैशेषिक ने आत्मा में कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों धर्म स्वीकार किए हैं। यही नहीं परमात्मा में भी जगत्कर्तृत्व माना गया है। उपनिषदों ने प्रजापति में जगत्कर्तृत्व स्वीकार किया था, नैयायिक-वैशेषिक ने उसे परमात्मा का धर्म मान लिया।
नैयायिक-वैशेषिक मत में आत्मा एकरूप नित्य है। अतः उसमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व जैसे क्रमिक धर्म कैसे सिद्ध हो सकते हैं ? यदि वह कर्ता हो तो कर्ता ही रहेगा और भोक्ता हो तो भोक्ता ही रह सकता है। किंतु एकरूप वस्तु में यह कैसे संभव है कि वह पहले कर्ता हो और फिर भोक्ता ? इस प्रश्न के उत्तर में नैयायिक
और वैशेषिक कर्तृत्व और भोक्तृत्व की यह व्याख्या करते हैं:"आत्मद्रव्य के नित्य होने पर भी उसमें ज्ञान, चिकीर्षा और प्रयत्न
१ मैत्रायणी २. १०. ११ २ मैत्रायणी २.६.
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