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( ५१ ) को भिन्न भिन्न स्थानों में क्रम पूर्वक प्राप्त करता है और वह कर्म तथा शरीर के गुणानुसार प्रत्येक जन्म में पृथक् पृथक् भी दृष्टिगोचर होता है। बृहदारण्यक के निम्नलिखित वाक्य भी जीवात्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व को प्रकट करते हैं:-'पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन' (३.२.१३) 'शुभ काम करने वाला शुभ बनता है और अशुभ कार्य करने वाला अशुभ' । “यथाकारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति, पापकारी पापो भवति, पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन । अथो खल्वाहुः काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति, यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते तदभिसंपद्यते।” (४.४.५) मनुष्य जैसे काम व आचरण करता है, वैसा ही वह बन जाता है। अच्छे काम करने वाला अच्छा बनता है और बुरे काम करने वाला बुरा । पुण्य कार्य से पुण्यशाली और पाप कर्म से पापी बनता है। इसी लिए कहा है कि मनुष्य कामनाओं का बना हुआ है। जैसी उसकी कामना होती है, उसीके अनुसार वह निश्चय करता है, जैसा निश्चय करता है वैसा ही काम करता है और जैसे काम करता है वैसे ही फल पाता है।
किंतु यह जीवात्मा जिस ब्रह्म या परमात्मा का अंश है, उसे उपनिषदों में अकर्ता और अभोक्ता कहा गया है। उसे केवल अपनी लीला का द्रष्टा माना गया है। यह बात इस कथन से स्पष्ट हो जाती है:-'यह आत्मा मानो शरीर के वश होकर अथवा शुभाशुभ कर्म के बंधनों में बद्ध होकर भिन्न भिन्न शरीरों में संचार करता है। किंतु वस्तुतः देखा जाए तो यह अव्यक्त, सूक्ष्म, अहश्य, अग्राह्य
और ममता रहित है। अतः वह सब अवस्थाओं से शून्य है, ऐसा प्रतीत होता है कि वह कर्तृत्व से विहीन होकर भी कर्तृरूप में
१ श्वेताश्वतर ५.१०-१२
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