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( १४२ ) उपनिषदो के देवलोक
बृहदारण्यक में आनन्द की तरतमता का वर्णन है। उसके आधार पर मनुष्य लोक से ऊपर के लोक के विषय में विचार किया जा सकता है। उसमें कहा गया है कि स्वस्थ होना, धनवान होना, दूसरों की अपेक्षा उच्चपद प्राप्त करना, अधिक से अधिक सांसारिक वैभव होना ये ऐसे आनन्द हैं जो इस संसार में मनुष्य के लिए महान् से महान हैं। पितृलोक में जाने वाले पितरों को इस संसार के आनन्द की अपेक्षा सौगुना अधिक आनन्द मिलता है। गंधर्व लोक में उससे भी सौगुना अधिक आनन्द है। पुण्य कर्म द्वारा देवता बने हुए लोगों का आनन्द गंधर्वलोक से सौगुना ज्यादा है। सृष्टि की आदि में जन्म लेने वाले देवों का आनन्द इन देवों की अपेक्षा सौगुना अधिक है। प्रजापति लोक में इस आनन्द से भी सौगुना और ब्रह्मलोक में उससे भी सौगुना आनन्द होता है। ब्रह्मलोक का आनन्द सर्वाधिक है-बृहदा० ४. ३. ३३ । देवयान-पितृयान - ऋग्वेद में इन दोनों शब्दों का प्रयोग है परन्तु इन मार्गों का वर्णन वहां उपलब्ध नहीं होता। उपनिषदों में दोनों मार्गों का विशद विवरण है। किंतु हम उसके विस्तार में न जाकर विद्वानों द्वारा मान्य उचित वर्णन का यहां उल्लेख करेंगे। कौषीतकी उपनिषद् में देवयान का वर्णन इस प्रकार है-मृत्यु के बाद देवयान मार्ग से जाने वाला व्यक्ति क्रमशः अग्निलोक, वायुलोक, वरुणलोक, इन्द्रलोक और प्रजापति लोक से होकर ब्रह्मलोक में
१ ऋग्वेद १०. १९. १ तथा १०. २. ७
२ बृहदा० ५.१०. १; छान्दोग्य ४.१५. ५-६; ५. १०. १-६; कौषीतकी १. २-४.
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