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इनमें से प्रथम चार घाती कहलाती हैं । इसका कारण यह है कि इनसे आत्मा के गुणों का घात होता है। अंतिम चार अघाती हैं । इनसे आत्मा के किसी गुण का घात नहीं होता, परन्तु ये आत्मा को वह स्वरूप प्रदान करते हैं जो उसका वास्तविक नहीं है । सरांश यह है कि घाती कर्म आत्मा के स्वरूप का घात करते हैं और घाती कर्म उसे वह रूप देते हैं जो उसका निजी नहीं ।
ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञान गुण का घात करता है और दर्शनावरण दर्शन गुरणका । दर्शन मोहनीय से तवरुचि, आत्मअनात्म विवेक अथवा सम्यक्त्व गुण का घात होता है और चरित्र मोहनीय से परम सुख अथया सम्यक् चरित्र का । अन्तराय वीर्यादि शक्ति के प्रतिघात का कारण है । इस तरह घाती कर्म आत्मा की विविध शक्तियों का घात करते हैं ।
वेदनीय कर्म आत्मा में अनुकूल अथवा प्रतिकूल वेदना के अविर्भाव का कारण है । आयु कर्म द्वारा आत्मा नारकादि विविध भवों की प्राप्ति करता है । जीवों को विविध गति, जाति, शरीर आदि की उपलब्धि नामकर्म के कारण होती है। जीवों में उच्चत्व-नीचत्व गोत्रकर्म के कारण उत्पन्न होता है ।
उक्त आठ मूल प्रकृतियों के अवान्तर भेदों की संख्या बंध की अपेक्षा से १२० है । ज्ञानावरण के पांच, दर्शनावरण के नव, वेदनीय के दो, मोहनीय के छब्बीस, आयु के चार, नाम के सतसठ, गोत्र के दो और अंतराय के पांच भेद हैं ।
उनका विवरण इस प्रकार है - मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये पांच ज्ञानावरण हैं । चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला
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