SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ११६ ) कृष्ण माना गया है। उसका तात्पर्य भी यही है। बौद्धों ने क्रिया चेतना के सद्भाव में अर्हत में कर्म की सत्ता अस्वीकार की है, उसका भावार्थ भी यही है कि वीतराग नवीन कर्मों का बंध नहीं करता। जैन जिसे ईर्यापथ अथवा असांपरायिक क्रिया मानते हैं, उसे बौद्ध क्रियाचेतना कहते हैं। कर्म के उक्त चार प्रकार के बँध हो जाने के पश्चात् तत्काल ही कर्मफल मिलना प्रारंभ नहीं हो जाता। कुछ सयय तक फल प्रदान करने की शक्ति का संपादन होता है। चूल्हे पर रखते ही कोई भी चीज़ पक नहीं जाती, जैसी वस्तु हो उसी के अनुसार उसके पकने में समय लगता है। इसी प्रकार विविध कर्मों का पाककाल भी एक जैसा नहीं। कर्म के इस पाक योग्यता-काल को जैन परिभाषा में 'आबाधाकाल' कहते हैं। कर्म के इस आबाधाकाल के व्यतीत होने पर ही कर्म अपना फल देना प्रारंभ करते हैं। इसे ही कर्म का उदय कहते हैं। कर्म की जितनी स्थिति का बंध हुआ हो, उतनी अवधि में कर्म क्रमशः उदय में आते हैं और फल प्रदान कर आत्मा से अलग हो जाते हैं। इसे कर्म की निर्जरा कहते हैं। जब आत्मा से सभी कर्म अलग हो जाते हैं, तब जीव मुक्त हो जाता है। ___यह कर्मबंधप्रक्रिया और कर्मफलप्रक्रिया की सामान्य रूपरेखा है। यहाँ इनकी गहराई में जाने की आवश्यकता नहीं। कर्म का कार्य अथवा फल ___ सामूहिक रूपसे कर्म का कार्य यह है कि जब तक कर्म बंध का अस्तित्व है, तब तक जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । समस्त कार्मों की निर्जरा होने पर ही मोक्ष होता है। कर्म की आठ मूल प्रकृतियां ये हैं :-ज्ञानाकरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy