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( १०८ ) मीमांसकों का मत
मीमांसकों ने यागादिकर्मजन्य अपूर्व नाम के एक पदार्थ की सत्ता स्वीकार की है। वे यह युक्ति देते हैं :-मनुष्य जो कुछ अनुष्ठान करता है वह क्रिया रूप होने के कारण क्षणिक होता है। अतः उस अनुष्ठान से अपूर्व नामक पदार्थ का जन्म होता है जो यागादि कर्म-अनुष्ठान का फल प्रदान करता है । कुमारिल ने इस अपूर्व पदार्थ की व्याख्या करते हुए कहा है कि अपूर्व का अर्थ है योग्यता। जब तक यागादि कर्म का अनुष्ठान नहीं किया जाता, तब तक वे यागादि कर्म और पुरुष दोनों ही स्वर्गरूप फल उत्पन्न करने में असमर्थ- अयोग्य होते हैं। परन्तु अनुष्ठान के पश्चात् एक ऐसी योग्यता उत्पन्न होती है जिससे कर्ता को स्वर्ग का फल मिलता है। इस विषय में आग्रह नहीं करना चाहिए कि यह योग्यता पुरुष की है अथवा यज्ञ की। इतना जानना पर्याप्त है कि वह उत्पन्न होती है। ___ अन्य दार्शनिक जिसे संस्कार, योग्यता, सामर्थ्य, शक्ति कहते हैं, उसे मीमांसक अपूर्व शब्द के प्रयोग से व्यक्त करते हैं। परन्तु वे यह अवश्य मानते हैं कि वेदविहित कर्म से जिस संस्कार अथवा शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, उसी को अपूर्व कहना चाहिए, अन्य कर्मजन्य संस्कार अपूर्व नहीं हैं।
मीमांसक यह भी मानते हैं कि अपूर्व अथवा शक्ति का आश्रय आत्मा है और आत्मा के समान अपूर्व भी अमूर्त है। १ शाबर भाष्य २.१.५, तंत्रवार्तिक २.१.५; शास्त्रदीपिका पृ० ८० २ कर्मभ्यः प्रागयोग्यस्य कर्मणः पुरुषस्य वा ।
योग्यता शास्त्रगम्या या परा सा पूर्वमिष्यते ॥” तन्त्रवा० २.१.१५. ३ तंत्रवार्तिक पृ० ३९५-२६. ४ तंत्रवा० पृ०.३९८; शास्त्रदीपिका पृ० ८०. ५ तंत्रवा०पृ० ३९८.
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