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( १०६ ) बौद्ध मत. जैन दर्शन के समान बौद्ध दर्शन में भी यह बात मानी गई है कि जीवों की विचित्रता कर्मकृत' है। जैनों के सदृश ही बौद्धों ने भी लोभ (राग), द्वेष और मोह को कर्म की उत्पित्ति का कारण स्वीकार किया है। रागद्वेष और मोह युक्त हो कर प्राणी-सत्त्व मन, वचन, काय की प्रवृत्तियाँ करता है और राग, द्वेष, मोह को उत्पन्न करता है। इस प्रकार संसार चक्र चलता रहता है । इस चक्र का कोई आदि काल नहीं, यह अनादि है । राजा मिलिन्द ने आचार्य नागसेन से पूछा कि जीव द्वारा किए गए कर्मों की स्थिति कहाँ है ? आचार्य ने उत्तर दिया कि यह दिखलाया नहीं जा सकता कि कर्म कहाँ रहते हैं। विसुद्धि मग्ग में कर्म को अरूपी कहा गया है (१७.११०), किन्तु अभिधर्मकोष में उस अविज्ञप्ति को रूप कहा है (१.६) और यह रूप सप्रतिघ न हो कर अप्रतिघ है। सौत्रान्तिक मत में कर्म का समावेश अरूप में है। वे अविज्ञप्ति नहीं मानते। इससे ज्ञात होता है कि जैनों के समान बौद्धों ने भी कर्म को सूक्ष्म माना है। मन, वचन, काय की प्रवृत्ति भी कर्म कहलाती है किन्तु वह विज्ञप्तिरूप अथवा
"भासितं पेतं महाराज भगवता-कम्मस्सका माणव, सत्ता, कम्मदायादा, कम्मयोनी, कम्मबन्धू , कम्मपटिसरणा, कम्मं सत्ते विभजति, यदिदं हीनपणीततायाति"मिलिन्द ३. २; 'कर्मजं लोक वैचित्र्यं"अभिधर्म कोष ४. १ । - २ अंगुत्तरनिकाय तिकनिपात सूत्र ३३.१. भाग १. पृ०१३४ ।
3 संयुत्तनिकाय १५.५.६ (भाग २, पृ० १८१-२)। -- ४ "न सक्का महाराज तानि कम्मानि दस्सेतुं इध वा इध वा तानि कम्मानि तिट्ठन्तीति'। मिलिन्द प्रश्न ३.१५ पृ० ७५ ।
५ नवमी ओरियंटल कॉन्फरं पृ० ६२० ।
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