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________________ उस भावकर्म का कार्य है, कारण नहीं। इस प्रकार हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि व्यक्तिशः पूर्वापरभाव होने पर भी जाति की अपेक्षा से पूर्वापरभाव का अभाव होने के कारण दोनों ही अनादि हैं। ___यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है। यह तो स्पष्ट है कि भावकर्म से द्रव्यकर्म की उत्पत्ति होती है क्योंकि अपने राग-द्वेष-मोह रूप परिणामों के कारण ही जीव द्रव्यकर्म के बंधन में बद्ध होता है अथवा संसार में परिभ्रमण करता है। किन्तु भावकर्म की उत्पत्ति में भी द्रव्यकर्म को कारण क्यों माना जाए ? इस प्रश्न का उत्तर यह दिया जाता है कि यदि द्रव्यकर्म के अभाव में भी भावकम की उत्पत्ति संभव हो तो मुक्त जीवों में भी भावकर्म का प्रादुर्भाव होगा और उन्हें फिर संसार में आना होगा। फिर संसार और मोक्ष में कुछ भी अन्तर न रह जाएगा। जैसी बंधयोग्यता संसारी जीव की है, वैसी ही मुक्त जीव में माननी पड़ेगी। ऐसी दशा में कोई भी व्यक्ति मुक्त होने के लिए क्यों प्रयत्नशील होगा ? अतः हमें स्वीकार करना होगा कि मुक्त जीव में द्रव्यकर्म न होने के कारण भावकर्म भी नहीं हैं। और द्रव्यकम के होने के कारण ही संसारी जीव में भावकर्म की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार भावकर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से भावकर्म की अनादि काल से उत्पत्ति होने के कारण जीव के लिए संसार अनादि है। द्रव्यकर्म की उत्पत्ति भाव कर्म से होती है, अतः द्रव्यकर्म भावकर्म का कार्य है, ऐसा इन दोनों में जो कार्यकारणभाव है उसका भी स्पष्टीकरण आवश्यक है। मिट्टी का पिण्ड घटाकार में परिणत होता है, इसलिए मिट्टी को उपादान कारण माना जाता है। किन्तु कुम्हार न हो तो मिट्टी में घटरूप बनने की योग्यता होने पर भी घट नहीं बन सकता। अतः कुम्हार निमच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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