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________________ बांध देता है, उसे द्रव्य कर्म कहते हैं। द्रव्य कर्म पुद्गल द्रव्य है, उसकी कर्म संज्ञा औपचारिक है। क्योंकि वह आत्मा की क्रिया या उसके कर्म से उत्पन्न होता है, अतः उसे भी कर्म कहते हैं। कार्य में कारण का उपचार किया गया है। अर्थात् जैन परिभाषा के अनुसार कर्म दो प्रकार का है। भाव कर्म और द्रव्य कर्म । जीव की क्रिया भावकर्म है और उसका फल द्रव्य कर्म। इन दोनों में कार्यकारणभाव है। भावकम कारण है और द्रव्यकर्म कार्य। किंतु यह कार्यकारणभाव मुर्गी और उसके अंडे के कार्यकारणभाव के सदृश है। मुर्गी से अंडा होता है, अतः मुर्गी कारण है और अंडा कार्य। यदि कोई व्यक्ति प्रश्न करे कि पहले मुर्गी थी या अंडा, तो इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। यह तथ्य है कि अंडा मुर्गी से होता है, परन्तु मुर्गी भी अंडे से ही उत्पन्न हुई है। अतः दोनों में कार्यकारणभाव तो है परन्तु दोनों में पहले कौन, यह नहीं कहा जा सकता। संतति की अपेक्षा से इनका पारस्परिक कार्यकारणभाव अनादि है। इसी प्रकार भावकर्म से द्रव्यकर्म उत्पन्न होता है, अतः भावकर्म को कारण और द्रव्यकर्म को कार्य माना जाता है। किंतु द्रव्यकर्म के अभाव में भावकर्म की निष्पत्ति नहीं होती। अतः द्रव्यकर्म भावकर्म का कारण हैं। इस प्रकार मुर्गी और अंडे के समान भावकर्म और द्रव्यकर्म का पारस्परिक अनादि कार्यकारणभाव भी संतति की अपेक्षा से है। यद्यपि संतति के दृष्टिकोण से भावकर्म और द्रव्यकर्म का कार्यकारणभाव अनादि है, तथापि व्यक्तिशः विचार करने पर ज्ञात होता है कि किसी एक द्रव्यकर्म का कारण कोई एक भावकर्म ही होता होगा, अतः उनमें पूर्वापरभाव का निश्चय किया जा सकता है। कारण यह है कि जिस एक भावकर्म से किसी विशेष द्रव्यकर्म की उत्पत्ति हुई है, वह उस द्रव्यकर्म का कारण है और वह द्रव्यकर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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