________________
अध्याय 31 ]
लघुचित्र अर्धचंद्राकार छल्ले के रूप में आकाश को अंकित किया गया है। कभी-कभी इन दोनों प्राकारों को मिलाकर एक कर दिया गया है। ताड़-वृक्षों के अंकन की प्रारंभिक परंपरा निरंतर प्रचलित रही लेकिन इन चित्रों में ताड़-वृक्षों के लम्बोतरे-घुमावदार तने के स्थान पर सीधा तना, अण्डाकार पत्तों के स्थान पर गोल या त्रिकोणाकार रूप में पंक्तियों में प्राबद्ध पत्तियों का अंकन किया गया है। जल का अंकन पहले की भाँति परंपरागत ढंग से समकेंद्रिक, एक के ऊपर उठते एक हुए, घेरों के रूप में किया गया है। स्थापत्य की संरचनाओं में छोटे-छोटे गुंबद और उनके ऊपर कलश अंकित हैं। पूर्व के चित्रों में रिक्त स्थानों की पूर्ति के लिए पुष्पों का जो अंकन किया जाता था वह इन चित्रों में नहीं पाया जाता। बड़े-बड़े रिक्त स्थानों को आलंकारिक वृत्ताकार पदकों से प्रापूरित कर दिया गया है। इस पाण्डुलिपि के चित्रों में कुछ व्यक्तियों को हाथों में कोई वस्तु लिये हुए दर्शाया गया है, जो कमल की कली जैसी दिखाई देती है। यह चित्रण असामान्य है और ऐसा अन्यत्र नहीं पाया जाता।
पासणाह-चरिउ की चित्रण-शैली तथा चित्र-संयोजन के समान एक दूसरी सचित्र पाण्डुलिपि जसहर-चरिउ की है जिसके भी रचनाकार रइधु हैं। इस समानता के आधार पर यह स्पष्ट है कि दोनों ही पाण्डुलिपियाँ रंगों के चयन, उनपर सर्वत्र की गयी हलके पीले रंग की वानिश, तथा विषयसंयोजन आदि के लिए एक ही शैलीगत मान्यताओं से अनुशासित हैं, यद्यपि विषय-संयोजन में पासणाहचरिउ के विपरीत कभी-कभी चित्र-फलक का घेरा वस्त्र के उड़ते हए छोर अथवा घेरे पर अंकित मानव-आकृतियों के कारण टूट गया है। (चित्र २८० ख)। इन दोनों पाण्डुलिपियों का साम्य मानव-आकृति के अंकन तक ही सीमित है (चित्र २८० ख की चित्र २८० क से तुलना कीजिए)। नारियों को प्रायः साड़ी पहने और पुरुषों को धोती एवं उत्तरीय पहने दर्शाया गया है (रंगीन चित्र ३३)। शिकारियों को जामा और पैजामा पहने हुए दर्शाया गया है। दोनों पाण्डुलिपियों के दृश्य-चित्रों के अंकन में किसी प्रकार का कोई विशेष अंतर नहीं है, लेकिन मण्डप के स्थापत्यीय अंकन में एक अंतर है। इस पाण्डुलिपि में चित्रित मण्डप के स्थापत्य में उसकी बाह्य संरचना में तीन या पांच गंबद हैं जो लाल रंग से रंगे हुए हैं। इस दोनों पाण्डुलिपियों की और पासणाह-चरिउ की परस्पर घनिष्ठ समानता के आधार पर इस पाण्डुलिपि के लिए लगभग सन् १४४०-५० का समय निर्धारित किया जा सकता है, और इसके रचना-स्थल के लिए, इस संभावना के उपरांत भी कि यह शैली दिल्ली-क्षेत्र में प्रचलित रही हो सकती है, ग्वालियर-क्षेत्र निर्धारित किया जा सकता है।
इन दोनों पाण्डुलिपियों की शैली से थोड़ा भिन्न, लेकिन इन्हीं की परंपरा में चित्रित, सांतिणाहचरिउ की एक ण्डुलिपि भी है। इसके रचनाकार भी कवि रइधू हैं। इसके चित्रों में शैली, चित्रों का नियोजन तथा पुरुषों के हाथों पर रखे हुए कमल की कली के समान वस्तु के अंकन की विशेषता आदि में पूर्ववर्ती दोनों पाण्डुलिपियों की मान्यताओं का निर्वाह हुआ है। रंग-योजना में हलके रंगाभासों को प्राथमिकता दी गयी है लेकिन इस पाण्डुलिपि के चित्रों से यह निश्चित कर पाना कठिन है कि इन चित्रों में अन्य दोनों पाण्डुलिपियों की भांति हलके पीले रंग की वानिश का प्रयोग किया गया है
429
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org