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________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [ भाग 1 या नहीं। लापरवाही से चित्रित इन चित्रों में मानव-प्राकृतियों को भद्दे अनुपात में चित्रित किया गया है, जिनमें सिर बड़े-बड़े हैं और आँखें उभरी हुई हैं, लेकिन मुद्राएं सजीव हैं (चित्र १८१ क)। इन चित्रों में सर्वाधिक उल्लेखनीय तत्त्व वेश-भूषा का है । नारियों को साड़ी या धोती और दुपट्टा पहने हुए दिखाया गया है लेकिन पुरुषों को सामान्यत: फारसी-शैली से प्रभावित वेश-भूषा में दर्शाया गया है, जिससे ज्ञात होता है कि पुरुष-वर्ग समसामयिक सलतनतकालीन प्रभाव के पक्ष में थे और वे लंबा जामा अथवा तंग पैजामे के साथ छोटा कुरता पहनते थे (रंगीन चित्र ३५)। इसके साथ वे पटका और उत्तरीय भी पहनते थे, सिर पर पगड़ी बाँधते थे। यह वेश-भूषा सिकंदर-नामा तथा भारत कला भवन में सुरक्षित लौर-चंदा एवं तूबिन्गेन के हम्ज़ा-नामा की पाण्डुलिपि के चित्रों में दर्शायी वेश-भूषा से मूल रूप से मिलती-जुलती है।' इस पाण्डुलिपि की शैली उत्तर-भारत की चित्र-परंपरा की विकासमान अवस्था का प्रतिनिधित्व करती हुई प्रतीत होती है, अतः ऐसा ज्ञात होता है कि यह पाण्डुलिपि लगभग सन् १४५०-६० की कालावधि में रची गयी है परंतु इस संभावना को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि इस कालावधि से इस पाण्डुलिपि की तिथि कुछ उत्तरवर्ती भी हो सकती है । यह पाण्डुलिपि यद्यपि ग्वालियर में लिपिबद्ध एवं चित्रित हुई मानी जाती है तथापि इसमें चित्रित फारसी से प्रभावित सुलतानी वेश-भूषा की प्रमुखता यह भी संकेत देती है कि यह पाण्डुलिपि दिल्ली-क्षेत्र में चित्रित हई हो क्योंकि ग्वालियर और दिल्ली दोनों ही केंद्रों में चित्रों की एक ही परंपरा प्रचलित रही है। __ कवि रइधू-कृत जसहर-चरिउ की एक अन्य प्रति भी उपलब्ध है जिसपर सन् १४५४ की तिथि अंकित है। इसके प्रथम बयालीस पृष्ठ उपलब्ध नहीं है परंतु शेष पृष्ठों पर अंकित चित्रों से स्पष्ट है कि यह पाण्डुलिपि शैलीगत रूप में अपने से पूर्ववर्ती एवं पूर्व विवेचित तीनों पाण्डुलिपियों की परंपरा से संबद्ध है। इसके चित्र शैलीगत और रीतिबद्ध हैं। इन चित्रों में पूर्ववर्ती चित्रों से भिन्न एक विशेषता यह है कि इनमें बाह्य रेखांकन के लिए लाल रंग का उपयोग किया गया है (रंगीन चित्र ३४)। रंग-योजना भी पूर्ववर्ती चित्रों के समान है। चित्रों में हलके रंगों का प्रयोग किया गया है तथा इनमें किसी प्रकार की वानिश का प्रयोग नहीं है। मानव-आकृतियाँ उद्धत प्रकृति की हैं तथा उसी प्रकार की वेश-भूषा में दर्शायी गयी हैं जो पूर्ववर्ती चित्रों में पायी गयी है। परंतु सांतिणाह-चरिउ के विपरीत इन चित्रों में जामा और पैजामा के लिए प्राथमिकता प्रदर्शित नहीं पायी जाती। मात्र एक चित्र में एक परुष को करता-पजामा पहने दिखाया गया है। नारियों को साड़ी पहने दिखाया गया है जिसमें साडी की चन्नटों को आगे की ओर निकला हुआ तथा कहीं-कहीं उन्हें साड़ी से पृथक ही प्रतिकृति में अंकित किया गया है। वस्त्रों को प्रायः श्वेत या एक ही रंग में रंगा हुआ दर्शाया गया है । यदि कहीं वस्त्रों को अलंकृत दिखाया गया है तो उनमें बिन्दुओं से बनी पट्टियों अथवा चौखाने की डिजाइन अंकित की गयी है। दश्य-चित्रों में आकाश को नाटकीय रूप से लहरदार पट्रियों में अंकित किया गया है 1 रंगीन चित्र 35 एवं चित्र 281 क की तुलना खण्डालावाला एवं मोतीचंद्र, पूर्वोक्त, 1968, चित्र 99, 101-15 तथा 117-23 से कीजिए. 430 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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