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अध्याय 38 ]
भारत के संग्रहालय
सिंहासन के आवरण पर फैली है। उसकी कुण्डलियाँ पार्श्वनाथ का आसन बनती हैं और फणावली उनके मस्तक पर वितान बनाये है। पृथक-पृथक सर्प-फणावली से मण्डित धरणेंद्र और पद्मावती सिंहासन पर पद्मासनस्थ है। पार्श्वनाथ के सिंहासन पर दोनों प्रोर एक-एक इंद्र है जिसके एक हाथ में कमल और दूसरे में चमर है। इस शिला के एक किनारे एक पट्टी में गज, व्याल, मकर आदि के अंकन हैं । फणावली के दोनों ओर, यक्षों के ऊपर गज है और छत्र के दोनों ओर देव और विद्याधर हैं जिनके हाथों में संगीत-वाद्य तथा मालाएँ हैं। तीर्थकर के अवयव सानुपात हैं। केश-राशि उष्णीष-बद्ध है । खजुराहो संग्रहालय की एक उल्लेखनीय पार्श्वनाथ-मूर्ति (१६५४,चित्र ३७७ क) खड्गासन-मुद्रा में है जिसके यक्ष और यक्षी भी दिखाये गये हैं। इसमें जो उल्लेखनीय है वह है सभी नौ ग्रहों की प्रस्तुति जबकि पार्श्वनाथ से सर्वाधिक संगति सूर्य की है, जिसकी उपासना रविवार के दिन की जाती है। कदाचित् यह मूर्ति किसी विशेष अनुष्ठान के लिए बनायी गयी होगी।
___ खजुराहो में यद्यपि शांतिनाथ की भी मूर्तियाँ बनीं परंतु यहाँ के दोनों संग्रहों में इस तीर्थंकर की एक भी मूर्ति उल्लेखनीय नहीं। महावीर की मूर्तियाँ यहाँ अधिक नहीं बनीं, वे केवल बीस मिली हैं । खजुराहो-संग्रहालय की एक महावीर-मूर्ति (४५७) पर 'प्रणमति वीरनाथदेव' शब्द उत्कीर्ण है। दूसरे अभिलेख 'रूपकार कुमारसीह' को मूर्तिकार का नामोल्लेख माना जा सकता है। महावीर की कुछ मूर्तियाँ और भी हैं (खजुराहो संग्रहालय की १६३१, १६३७,१६८६ तथा जैन संग्रह की कुछ क्रमांक-रहित) । यदि यह परंपरागत मान्यता स्वीकार्य हो कि सभी लांछन-रहित मूर्तियाँ महावीर की होती हैं, तो इस तीर्थंकर की मूर्तियाँ एक सौ से अधिक होंगी।
जैन संग्रह में एक ऐसा कलावशेष (१०२,चित्र ३७७ ख) है जिसे किसी मूर्ति के तोरण का ऊपरी भाग माना जा सकता है, उसके मध्य में एक तीर्थंकर की आसीन मूति उत्कीर्ण है जिसकी पूजा के लिए आते गजारोही नृप अंकित हैं, गज शुण्डा-दण्डों से कमल धारण किये हैं। ऊपरी पट्टी में दोनों ओर हाथों में मालाएं और कमल धारण किये विद्याधर तथा संगीत-वाद्य बजाते हुए पाठ गंधर्व दिखाये गये हैं। यह दृश्य तीर्थंकरों के जन्म-कल्याणक का हो सकता है।
यक्ष-यक्षियों की मूर्तियाँ : खजुराहो में धरणेंद्र, पद्मावती की अनेक मूर्तियाँ है जिनमें सर्वाधिक सुंदर वह (प्रथम खण्ड में चित्र १६३) है जो शांतिनाथ मंदिर में प्रांगण में उत्तर-पश्चिम कोण पर दीवाल में जड़ दी गयी है, और जिसे कभी तीर्थंकर के माता-पिता माना जाता रहा। दोनों पृथक-पृथक कलापूर्ण आसनों पर इस तरह आसीन हैं कि उनका बायाँ पैर मुड़ गया है और दायाँ कमल पर रखा गया है । धरणेंद्र घुटनों तक धोती पहने है और उसका उत्तरीय कंधों पर से पैरों तक लटका है। उसके दायें हाथ में नारिकेल है और बायें में कमल जो अब खण्डित है। पद्मावती की कढ़ी हुई साड़ी उसके पैरों तक है और उत्तरीय उसकी भुजाओं को छूता हुआ पैरों तक आ गया है। विपुल प्राभूषणों से मण्डित यह देवी दायें हाथ में नारिकेल और बायें में शिशु को धारण किये है । यक्ष-यक्षी के पीछे पृथक-पृथक भामण्डल है और उनके मध्य एक वृक्ष का अंकन है जिसके अग्रभाग पर एक तीर्थंकर-मूर्ति उत्कीर्ण है। तीर्थंकर की दोनों ओर सामान्य रूप से द्रष्टव्य विद्याधर आदि की संदर
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